Saturday, April 22, 2006

आरक्षण बनाम योग्यता

यह सही है कि आरक्षण का मुद्दा भारत में राजनीतिज्ञों के लिए वोटबैंक को बढ़ाने और बरकरार रखने का हथियार बन चुका है। यह भी सही है कि आरक्षण के प्रावधान से विकास की रफ्तार बाधित होती है। यह भी सही है कि आरक्षण के कारण कुछ योग्य लोग बेहतर अवसरों के लाभ से वंचित रह जाते हैं और उनके स्थान पर अपेक्षाकृत कम योग्य लोगों को वह अवसर मिल जाता है। यह भी सही है कि आरक्षण एक अस्थायी उपाय है जिसे लंबे समय तक लागू नहीं रखा जाना चाहिए। यह भी सही है कि आरक्षण के प्रावधान से जाति-आधारित कटुता बढ़ रही है जिससे सामाजिक समरसता स्थापित करने में अधिक दिक्कत आएगी। कोई भी विवेकशील व्यक्ति उपर्युक्त तथ्यों से असहमत नहीं हो सकता। लेकिन इससे पहले कि आरक्षण के विरोध में आप कोई मोर्चाबंदी करने के लिए निकलें, आपके पास इसका कोई बेहतर और ठोस विकल्प अवश्य होना चाहिए। जिन लोगों को ‘आरक्षण’ दिया जाना आप पसंद नहीं करते, उन्हें संविधान के अनुसार प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए आपके पास कौन-सा बेहतर वैकल्पिक उपाय है? भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो इसके लिए आरक्षण का ही उपाय किया गया है।

मीडिया का दुरुपयोग करने से बचें यदि आप भारतीय संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखते हैं तो आपको आरक्षण के उस प्रावधान को लागू किए जाने का समर्थन करना चाहिए जिसे भारत की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार भारतीय संविधान के उपबंधों के दायरे में लागू करना चाह रही हो। यदि आपकी आस्था संविधान और लोकतंत्र में नहीं है तो फिर यह ध्यान रखिए कि आप आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान का विरोध भी इसीलिए कर पा रहे हैं क्योंकि भारतीय संविधान और लोकतंत्र ने ही आपको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया है। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस्तेमाल के मुख्य माध्यम प्रेस और मीडिया पर अपने वर्चस्व की बदौलत यदि आप सरकार को संविधान के विपरीत दिशा में चलाने की कोशिश करना चाह रहे हों तो यह कोशिश आपको बहुत मंहगी पड़ सकती है, क्योंकि प्रेस और मीडिया का सारा कारोबार जिन पाठकों और दर्शकों के भरोसे पर टिका हुआ है उनका बहुमत संवैधानिक प्रावधानों का इस तरह मजाक बनाए जाते देखना पसंद नहीं करेगा और उनसे विमुख हो जाएगा। मीडिया के लोगों को इसकी बानगी उस दिन देखने को मिली जब एन.डी.टी.वी. द्वारा आरक्षण के मुद्दे पर आयोजित परिचर्चा में शामिल होने आए दर्शकों में से पिछड़े वर्ग के बहुत-से युवाओं ने कार्यक्रम के एकपक्षीय संचालन के विरोध में कार्यक्रम का बीच में ही बहिष्कार कर दिया और स्टूडियो से बाहर चले गए। बरखा दत्त ने इस घटना का जिक्र हिन्दुस्तान टाइम्स में संपादकीय पृष्ठ पर छपे अपने आलेख में भी किया। जो मीडिया जनमत का प्रतिनिधित्व नहीं करे और जब थोड़े से सवर्ण पत्रकार स्वयं को भारत का भाग्य विधाता समझकर अपने जातिगत स्वार्थ की पूर्ति और मिथ्या अभिमान की संतुष्टि के लिए संवैधानिक प्रावधानों और लोकतांत्रिक व्यवस्था का मजाक बनाने की कोशिश करें तो न केवल वे अपनी विश्वसनीयता गँवा देंगे, बल्कि जनता का बहिष्कार भी झेलने के लिए बाध्य हो जाएंगे। यदि आप वाकई आरक्षण के प्रावधान को लागू होने नहीं देना चाहते हैं तो मीडिया का गलत इस्तेमाल करने के बजाय आपको लोकतांत्रिक चुनाव के जरिए संसद में बहुमत हासिल करना चाहिए और संविधान में संशोधन करके आरक्षण के प्रावधान को हटा देना चाहिए।

क्या हो सकता है आरक्षण का विकल्प आरक्षण का एक कारगर विकल्प हमारे राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने सुझाया कि प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में जितनी सीटें आरक्षित की जा रही हों, कुल सीटों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ा दी जानी चाहिए ताकि गैर-आरक्षित श्रेणी के लिए पहले की तरह अवसर उपलब्ध रहें। इस सुझाव का व्यापक स्वागत हुआ। सीटों की संख्या जितनी बढ़ाई जा सके उतनी बेहतर है ताकि अधिक से अधिक लोगों को उच्च शिक्षा हासिल करने का मौका मिल सके। आदर्श स्थिति तो वह होगी जिसमें हर शिक्षार्थी को पढ़ने को मौका मिले और हर बेरोजगार को रोजगार मिले। लेकिन चूंकि प्रत्याशी अधिक होते हैं और अवसरों की उपलब्धता काफी कम होती है, इसलिए प्रतियोगिता आयोजित कराई जाती है ताकि जो सबसे योग्य हों उन्हें ही सीमित अवसरों का लाभ मिल सके। लेकिन असमान सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता कदापि नहीं हो सकती। भारत में अभी तक ऐसी व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है जिसमें किसी प्रतियोगिता के आयोजन से पहले हर प्रत्याशी को उसकी तैयारी के लिए समान सुविधा और समान परिस्थिति उपलब्ध हो सके। आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था में कृष्ण और सुदामा अब एक साथ नहीं पढ़ा करते और कोई कृष्ण अब किसी सुदामा का मित्र नहीं होता। यदि आप आरक्षण के प्रावधान को समाप्त करना चाहते हैं तो पहले आप ऐसी व्यवस्था विकसित कीजिए ताकि किसी प्रतियोगिता में भाग लेने वाले हर प्रतियोगी को समान सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि उपलब्ध हो सके।

क्या हैं योग्यता के मायने जब आप योग्यता की बात करते हैं और प्रतियोगिता के आयोजन के द्वारा उसका निर्धारण किए जाने की वकालत करते हैं तो पहली बात यह कि प्रतियोगिता का संचालन और योग्यता का निर्धारण करना भी आपके ही हाथों में रहा है, और आपने इसमें आज तक ईमानदारी नहीं दिखाई है। विशेषकर साक्षात्कारों के आधार पर योग्य प्रत्याशी का चयन किए जाने में पारदर्शिता सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था नहीं होती। सचाई तो यह है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बहुत से प्रत्याशियों को संवैधानिक उपबंधों के बावजूद आरक्षण के लाभ से लंबे समय तक वंचित ही रखा गया, क्योंकि जिन पदाधिकारियों के अधिकार-क्षेत्र में उन उपबंधों को लागू करने का दायित्व था, वे चाहते नहीं थे कि आरक्षित पदों पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोग भर्ती किए जाएँ। इसलिए वे फाइलों पर यह दर्ज करते रहे कि आरक्षित वर्गों के ‘उपयुक्त’ उम्मीदवार उपलब्ध नहीं होने के कारण उनके स्थान पर सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों की भर्ती कर ली गई। ऐसी नियुक्तियों के मामले में जो भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार चलता रहा, उसे उस दौर में सरकारी सेवा में रह चुका हर व्यक्ति जानता है। इस बारे में काफी विरोध होने पर बाद में ऐसे स्पष्ट प्रावधान किए गए ताकि आरक्षित रिक्त पदों को सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों से नहीं भरा जा सके। प्रतियोगिता के जरिए योग्यता के निर्धारण की प्रक्रिया का मुख्य आधार ‘पदानुक्रम’ (Hierarchy) और ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ (Survival of the fittest) का सिद्धांत है। लेकिन आपने प्रतियोगिता के बजाय वर्ण-व्यवस्था के आधार पर पिछले हजारों वर्षों से योग्यता और श्रेष्ठता को अपना जन्मजात अधिकार समझकर समाज के बहुसंख्यक वर्गों को अपने अधीन बनाए रखा। प्रतियोगिता पर आधारित ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ (Survival of the fittest) के सिद्धांत पर अमल करते हुए पहले तुर्कों-मुगलों ने और बाद में अंग्रेजों ने आपके जन्मजात अधिकार को चुनौती दी और आपकी योग्यता और श्रेष्ठता तब धूल चाटने लगी। तब आपमें से अधिकांश अवसरवादी लोग मुगलों और अंग्रेजों की चाटुकारिता में लग गए और जब आजादी मिलने का समय आया तो चूहे की तरह कूदकर सत्ता और सरकार में शामिल हो गए। भारत का स्वतंत्रता संघर्ष तो मुख्य रूप से पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों ने लड़ा, लेकिन उसके नेतृत्व पर सवर्ण वर्ग के नेताओं ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया।

र्वोदय और आरक्षण आजादी मिलने के बाद पहली बार भारतीय संविधान में ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ के स्थान पर सर्वोदय के सिद्धांत को कार्यान्वित किया गया, हालाँकि बात हमारे यहाँ सदियों से ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की होती रही है। भारतीय लोकतंत्र का आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना है। लोकतांत्रिक भारत में इस आधार पर किसी को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह आपसे कम योग्य है। यदि कोई फिलहाल आपसे कम योग्य है तो उसकी संभावना का विकास कीजिए और उसे अपने बराबर की प्रतिष्ठा और अवसर दीजिए ताकि वह आपसे स्वस्थ प्रतियोगिता कर सकने में सक्षम बन सके। “प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।” हर मानव में विकास करने की असीम संभावना छिपी होती है, उस संभावना का पता लगाइए और उसका विकास करने का अवसर और माहौल दीजिए। भारतीय संविधान में दलित और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान इसीलिए किया गया है। जब पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिया जाने लगा तो आपने कहा कि नौकरी में आरक्षण मत दो, उन्हें पढ़ाई-लिखाई की सुविधा दो ताकि पहले वे योग्य हो जाएँ, उसके बाद रोजगार प्राप्त करें। अब जब पढ़ाई-लिखाई के मामले में आरक्षण दिए जाने की बात उठी तो आप कहते हैं कि यह गलत हो रहा है, योग्यता का गला घोंटा जा रहा है और शिक्षा का स्तर बिगाड़ा जा रहा है। अब आप उच्च शिक्षा में आरक्षण का विरोध कर रहे हैं। संविधान लागू होने के बाद 40 वर्ष तक आपलोगों ने ऐसा कुछ क्यों नहीं किया ताकि पिछड़े वर्गों को आरक्षण की जरूरत नहीं पड़ती। जब संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के साथ-साथ सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े अन्य वर्गों को भी आगे लाने के लिए विशेष उपाय किए जाने की बात कही गई तो उनपर अमल क्यों नहीं किया गया। सच बात यह थी कि आपकी नीयत नहीं थी उन्हें बराबरी का हक़ देने की। जब उनमें राजनीतिक और सामाजिक चेतना का विकास हुआ तो वे लोकतांत्रिक और संवैधानिक तरीकों से अपना हक़ हासिल करने की चेष्टा में लगे हैं।

सामाजिक न्याय और राजनीतिक मजबूरी यह ठीक है कि 1990 में मंडल आयोग की कुछ सिफारिशों को लागू करके कुछ राजनेताओं ने अपनी राजनीति खूब चमकाई। उसी के बाद सामाजिक न्याय का मुद्दा हर राजनीतिक दल की ज़बान पर चढ़ा। पिछड़े वर्गों का पहली बार ऐसा ध्रुवीकरण हुआ कि वह दलित वर्ग से भी बड़ा वोट बैंक बनकर उभरा जिसको अपने पाले में करना सत्ता हासिल करने की ख्वाहिश रखने वाले हर राजनीतिक दल की मजबूरी हो गई। हालाँकि दोनों बड़े राजनीतिक दल -- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी सामाजिक न्याय की राजनीति को आत्मसात नहीं कर पाए। लेकिन पिछड़े डेढ़ दशक में इन दोनों राजनीतिक दलों को भलीभाँति अनुभव हो गया कि सामाजिक न्याय के मुद्दे को छोड़कर भारतीय राजनीति में सत्ता हासिल कर पाना संभव नहीं है। भारतीय जनता पार्टी ने मंडल की काट के लिए कमंडल के अस्त्र को आजमाया, लेकिन वह अधिक दिनों तक कारगर साबित नहीं हो पाया। कांग्रेस पार्टी ने आर्थिक ‘सुधारों’ और निजीकरण के द्वारा भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा के जरिए विकास के सिद्धांत को स्थापित करने की रणनीति अपनाई। लेकिन उसे मालूम है कि इससे चुनाव जीते नहीं जा सकते, इसलिए उसे भी मजबूर होकर शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण और निजी क्षेत्रों में आरक्षण के मुद्दे को अपनाना पड़ा। वामपंथी पार्टियाँ आर्थिक न्याय की राजनीति पर जोर दिए जाने की वकालत करती रही, लेकिन सत्ता से जुड़े रहने के बावजूद ठोस धरातल पर वे इस दिशा में कुछ भी कारगर प्रयास नहीं कर सकीं। जो चरमपंथी वामपंथी पार्टियाँ थी उनलोगों ने नक्सलवाद के रूप में आर्थिक न्याय को हासिल करने के लिए एक ऐसी राह पकड़ ली, जो लोकतंत्र और संविधान के ही विपरीत दिशा में काम करता है।

स्थायी समाधान आरक्षण का स्थायी विकल्प यही हो सकता है कि आप सबके लिए पर्याप्त अवसर पैदा कर दें ताकि किसी को आरक्षण देने की नौबत ही नहीं आए। दूसरा समाधान यह कि व्यक्ति अपनी योग्यता और अभिरुचि के अनुसार चाहे जो भी वैध रोजगार करे और उसकी आमदनी चाहे जितनी कम हो, उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और जीवन के लिए उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित की जाए। प्रकृति ने मनुष्यों में प्रतिभा, क्षमता और अभिरुचि की विविधता प्रदान की है, लेकिन मनुष्यों ने उस विविधता को पदानुक्रम का पैमाना बना लिया है। जब तक पदानुक्रम की मानसिकता समाप्त नहीं होती, तब तक आरक्षण का प्रावधान भी जारी रहेगा।

Friday, April 14, 2006

प्रायोजित आरक्षण-विरोध का पर्दाफाश

पिछड़े वर्गों के लिए केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण से संबंधित केन्द्र सरकार के प्रस्ताव पर विरोध को रणनीतिक ढंग से प्रायोजित करने के लिए कुछ पत्रकारों ने जिस तरह से पत्रकारिता के मानदंडों की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपनी जाति दिखायी है, उससे भारतीय पत्रकारिता के आदर्शों को धक्का लगा है। पत्रकारिता को इस तरह शर्मसार किया जाना ‘द हिन्दू’ से नहीं देखा गया और उसके राजनीतिक संपादक हरीश खरे ने 12 अप्रैल, 2006 को अपने संपादकीय आलेख “Lessons from the new intolerance” में ऐसे कुछ सवर्ण पत्रकारों द्वारा लॉबिंग करके आरक्षण के विरोध को प्रायोजित करने और पत्रकारिता के हथियार का इस्तेमाल करके आरक्षण संबंधी नए प्रस्ताव को कार्यान्वित नहीं करने हेतु सरकार पर दबाव बनाने की साजिश का पर्दाफाश कर दिया। इस आलेख में उन्होंने कुछ अख़बारों और समाचार चैनलों द्वारा आरक्षण विरोध को तूल देने और उसे फुलाकर एक बड़ी खबर बना देने के लिए घटिया तौर-तरीके अपनाने की प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य किया है। इससे भी अधिक हास्यास्पद तो उन्होंने चुनाव आयोग के ईमानदार आयुक्तों द्वारा मीडिया के इस बहकावे में बह जाने की मानसिकता को माना है। कुछ समाचार पत्रों और समाचार चैनलों ने हर संभव कोशिश की ताकि मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह को खलनायक साबित किया जाए और विवादों से बचने की कोशिश करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मजबूर होकर उनके आरक्षण संबंधी प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दें। उनकी तरकीब कुछ समय के लिए कारगर भी साबित होती दिखाई दी, जब चुनाव आयोग ने अर्जुन सिंह से इस विषय पर स्पष्टीकरण मांग लिया और मंत्रिमंडल सचिव ने आरक्षण संबंधी प्रस्ताव को चुनाव आयोग की अनापत्ति की शर्त जोड़ते हुए वापस कर दिया। समाचार चैनलों और अख़बारों द्वारा ‘योग्यता’ के पक्ष में मुखर स्वरों की खोज करने के लिए जिस तरह से कैमरामैन और पत्रकारों की टीम चुनिंदा जगहों पर भेजी गई और उन्हें एकपक्षीय और पक्षपाती ढंग से प्रस्तुत किया गया, उससे भी अधिक शर्मनाक था इस विषय पर परिचर्चाओं का संचालन। इस तरह की सभी परिचर्चाओं का संचालन निरपवाद रूप से सवर्ण पत्रकारों द्वारा किया गया। पैनल में चर्चा का उत्तर देने के लिए बुलाए गए विशेषज्ञों और मंत्रियों के सामने केवल सवर्ण आरक्षण-विरोधी दर्शकों के सवाल रखे जाते रहे। बहस के निष्कर्ष और तर्क परिचर्चा के संचालकों के मन में पहले ही से निर्धारित थे। कहीं भी परिचर्चा में दोनों पक्षों को समान अवसर देने की न्यूनतम शिष्टता नहीं दिखाई गई, जिसकी हर पत्रकार से अपेक्षा की जाती है। इस देश में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के पक्षधरों की संख्या उसके विरोधियों की संख्या से कम से कम चौगुनी है। लेकिन इन स्वनामधन्य पत्रकारों को पूरे देश में आरक्षण के पक्ष में बोलने वाला प्रतिभाशाली व्यक्ति खोजने से भी नहीं मिला। उनकी नज़रों में पिछड़े वर्ग के सारे लोग ही प्रतिभाहीन थे। यहाँ तक कि उनलोगों ने पिछड़े वर्ग के समुदाय में से भी आरक्षण-विरोधी खोजकर निकाल लिए। कुछ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सवर्ण संपादकों ने आरक्षण के पक्षधर पत्रकारों की आवाज को दबाने की पूरी कोशिश की। इस स्थिति ने आरक्षण के मुद्दे पर सवर्ण और असवर्ण पत्रकारों के बीच अंदरूनी विभाजन को भी जन्म दे दिया। ऐसे में ‘द हिन्दू’ के उपर्युक्त आलेख ने आरक्षण के मुद्दे पर पत्रकारों को संतुलित और निष्पक्ष दिशा में सोचने और देखने के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया है।

Tuesday, April 11, 2006

आरक्षण पर शरद यादव की राय

मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले शरद यादव ने बी.बी.सी. के साथ बातचीत में उन राजनीतिक परिस्थितियों का खुलासा किया है, जिसमें पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का रास्ता खोल पाना संभव हो पाया।

विश्वनाथ प्रताप सिंह की राय

पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के संबंध में मंडल आयोग की सिफारिशों को आंशिक रूप से लागू करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बी.बी.सी. के साथ इस विषय पर एक बातचीत में अपने दृष्टिकोण को साफगोई के साथ व्यक्त किया।

Sunday, April 09, 2006

पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण पर बहस

वर्चस्व और प्रतिरोध की पृष्ठभूमि समाज में शांति, सौहार्द और समरसता स्थापित करने के लिए समानता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना अनिवार्य है। लेकिन भारतीय समाज में समानता और स्वतंत्रता कभी वास्तविकता नहीं रही। पुरातन काल से ही हमारे यहाँ व्यक्ति को समाज की स्वतंत्र इकाई के रूप में देखने के बजाय उन्हें जाति और वर्ण व्यवस्था के दायरे में आबद्ध माना जाता रहा। वर्ण-व्यवस्था का सूत्रपात करते समय भले ही गुण और कर्म के सिद्धांत का तर्काधार प्रस्तुत किया गया हो, लेकिन भारतीय समाज के इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि यह व्यवस्था दरअसल समाज को पदानुक्रम के साँचे में ढालने के लिए बनाई गई थी। यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने-अपने संस्कार और स्वभाव के अनुरूप कार्य करते हुए भी सामाजिक धरातल पर समान माने जाते तब तो कोई समस्या ही नहीं थी। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कभी नहीं हो सका। ब्राह्मण अपने को समाज में हमेशा सर्वश्रेष्ठ और बाकी वर्ण के लोगों को हीन मानते रहे। वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच आजीवन यही सिद्ध करने के लिए संघर्ष चलता रहा कि ब्राह्मण और क्षत्रिय में से श्रेष्ठ कौन है। परशुराम ने तो धरती को क्षत्रिय-विहीन कर देने की शपथ ले रखी थी और हजारों क्षत्रियों को अपने फरसे से मौत के घाट उतार दिया था। राहुल सांकृत्यायन ने ‘वोल्गा से गंगा तक’ में प्राचीन भारत में जातीय श्रेष्ठता के अभिमान को लेकर चलने वाले ऐसे रक्तरंजित संघर्षों का सविस्तार वर्णन किया है। परशुराम को जब अपने प्रतिभाशाली और गुरुभक्त शिष्य कर्ण के बारे में यह ज्ञात हुआ कि वह ब्राह्मण नहीं, बल्कि एक क्षत्रिय है तो उसे श्राप दे दिया कि जब उसे धनुर्विद्या का उपयोग करने की सर्वाधिक जरूरत होगी तब वह सारी विद्या भूल जाएगा। धनुर्विद्या के कौशल की प्रतियोगिता में कर्ण को इस आधार पर बाहर रखने का प्रयास किया गया कि वह सारथी का पुत्र होकर क्षत्रियों और राजकुमारों के समकक्ष अवसर नहीं हासिल कर सकता। अत्यंत प्रतिभाशाली होने के बावजूद एकलव्य को द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या की शिक्षा देने से इसलिए इनकार कर दिया क्योंकि वह भील जाति का था और जब उसने स्वयं अपनी लगन और मेहनत से वह विद्या हासिल कर ली तब द्रोण ने छल से दक्षिणा के रूप में उसका दाहिना अंगूठा मांग लिया ताकि वह अपनी विद्या का उपयोग नहीं कर सके। एकांत वन में मौन ध्यान में लीन शूद्र ऋषि शंबूक की हत्या ब्राह्मणों ने दबाव डालकर श्रीराम के हाथों इसलिए करवा दी ताकि वह ब्रह्मज्ञानी न बन जाए। फिर भी, प्राचीन भारत में महर्षि अगस्त्य, बाल्मीकी जैसे कई बह्मज्ञानी और महाकवि हुए जो उपेक्षित जातियों में जन्म लेने के बावजूद अपनी प्रतिभा की श्रेष्ठता और विशिष्टता साबित कर पाने में सफल रहे। बुद्ध के मार्ग में भी ब्राह्मणों ने बहुत रोड़े अटकाए, क्योंकि वह वर्चस्ववादी वर्ण-व्यवस्था के स्थान पर समानता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की प्रतिष्ठा करना चाह रहे थे। शंकराचार्य और उनके अनुयायियों ने तो बौद्ध धर्म का भारत से उन्मूलन करने के लिए हर संभव कोशिशें कीं, क्योंकि बौद्ध धर्म समाज के पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों को बराबरी के धरातल पर लाने का सफल आंदोलन चला रहा था। पिछले पाँच हजार वर्षों में ऐसे हजारों उदाहरण हैं जब स्वयं को श्रेष्ठ कहने वाली जाति के लोगों ने अन्य जाति के प्रतिभाशाली लोगों को आगे बढ़ने से रोकने की हर संभव कोशिशें कीं। कबीर जुलाहे के घर में पले-बढ़े थे, इसीलिए उन्हें ब्राह्मणों से उपेक्षा और अपमान झेलनी पड़ी। ब्राह्मण रामानन्द जब जुलाहे कबीर को दीक्षा देने के लिए तैयार नहीं हुए तो कबीर को उनसे गुरुदीक्षा लेने के लिए अँधेरे में बनारस के घाट की सीढ़ियों पर लेटने का उपाय निकालना पड़ा ताकि अनजाने में रामानन्द के पैर उन पर पड़ जाएँ। जब एक दिन ऐसा ही हुआ तो घबराकर अनजाने में रामानन्द के मुख से निकले “राम-राम” को ही कबीर ने अपना गुरु-मंत्र मान लिया। कबीर ने अपने जीवन में जो व्यथा झेली वही उनकी कविता और उपदेशों में वर्चस्ववादी वर्णाश्रम-व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध के तीव्र स्वर के रूप में अभिव्यक्त हुआ। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को जब उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला तो उन्होंने साबित कर दिखाया कि यदि दलित वर्ग के लोगों को अपनी प्रतिभा को निखारने का मौका मिले तो वे तथाकथित ऊँची जाति के लोगों से बेहतर उपलब्धि हासिल कर सकते हैं। लेकिन वर्ष 1950 में भारतीय संविधान लागू होने से पहले तक पिछड़े और दलित वर्गों के जो भी व्यक्ति अपनी प्रतिभा को विकसित कर पाने में सफल हुए वे या तो जबरदस्त जीवट वाले व्यक्ति थे जो समस्त प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद अध्यवसाय के बल पर अपनी श्रेष्ठता साबित कर सके या फिर उन्हें संयोगवश ऊँची जातियों के ही किसी विरले उदार महापुरुष का सानिध्य मिल गया। पिछड़े वर्ग के महात्मा गाँधी को भी गोखले और तिलक का वरदहस्त मिल जाने से उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेतृत्व पर सहजता से स्थापित होने में मदद मिली थी। संविधान में शामिल उपबंध स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विकसित हुए मानवीय मूल्यों के आधार पर निर्मित भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किए जाने के बाद पहली बार दलित वर्ग अर्थात् अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों को संवैधानिक अधिकार के रूप में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता मिल सकी। संविधान के अनुच्छेद 46 के अंतर्गत राज्य की नीति के निदेशक तत्व के रूप में उपबंध किया गया कि “राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा।” सरकार ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान और उनको समानता के स्तर पर लाने के लिए कई आवश्यक कदम तुरंत उठा लिए और यह सिलसिला अब भी जारी है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारी सेवाओं में सीधी भर्ती के मामले में आरक्षण 21 सितम्बर, 1947 से और पदोन्नति के मामले में आरक्षण 4 जनवरी, 1957 से ही लागू है। लेकिन आरक्षण के लाभ से सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े अन्य वर्गों के बहुसंख्यक लोगों को वंचित ही रखा गया, क्योंकि कई दशकों तक इन पिछड़े वर्गों की स्पष्ट पहचान ही स्थापित नहीं हो सकी। हालाँकि संविधान में इसके लिए स्पष्ट उपबंध मौजूद रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 340(1) में उपबंध है कि “राष्ट्रपति भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की दशाओं के और जिन कठिनाइयों को वे झेल रहे हैं उनके अन्वेषण के लिए और उन कठिनाइयों को दूर करने और उनकी दशा को सुधारने के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा जो उपाय किए जाने चाहिएं उनके बारे में और उस प्रयोजन के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा जो अनुदान किए जाने चाहिएं और जिन शर्तों के अधीन वे अनुदान किए जाने चाहिएं उनके बारे में सिफारिश करने के लिए, आदेश द्वारा, एक आयोग नियुक्त कर सकेगा जो ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनेगा जो वह ठीक समझे और ऐसे आयोग को नियुक्त करने वाले आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।” आगे अनुच्छेद 340(2) में कहा गया है कि “इस प्रकार नियुक्त आयोग अपने को निर्देशित विषयों का अन्वेषण करेगा और राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा, जिसमें उसके द्वारा पाए गए तथ्य उपवर्णित किए जाएंगे और जिसमें ऐसी सिफ़ारिशें की जाएंगी जिन्हें आयोग उचित समझे।” अनुच्छेद 340(3) के अनुसार “राष्ट्रपति, इस प्रकार दिए गए प्रतिवेदन की एक प्रति, उस पर की गई कार्रवाई को स्पष्ट करने वाले ज्ञापन सहित, संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा।” संविधान के अनुच्छेद 15 के अंतर्गत धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करने के लिए उपबंध करते समय अनुच्छेद 15(4) के अंतर्गत यह परंतुक जोड़ा गया है कि “इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।” इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 16 के अंतर्गत लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता के संबंध में उपबंध करते हुए अनुच्छेद 16(4) के अंतर्गत यह परंतुक भी जोड़ा गया है कि “इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।” हाल ही में 20 जनवरी, 2006 को अधिनियमित 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा अंत:स्थापित अनुच्छेद 15(5) के अनुसार, “इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उप-खंड (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए विधि द्वारा कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी, जहाँ तक ऐसे विशेष उपबंध, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर, निजी शैक्षिक संस्थानों सहित शैक्षिक संस्थानों, चाहे वे राज्य से सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त हों, में प्रवेश से संबंधित हों।” पिछड़ा वर्ग आयोगों की सिफारिशें जैसा कि उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण एवं अन्य विशेष प्रावधान किए जाने के संबंध में कई बार उल्लेख किया गया है, लेकिन इसके लिए पिछड़े वर्गों की पहचान को स्पष्ट करने और उनकी पहचान के लिए मानदंड निर्धारित किए जाने की आवश्यकता थी। इसलिए, अनुच्छेद 340 का अनुपालन करते हुए पहली बार राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 29 जनवरी, 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। इस आयोग ने अपनी सिफारिशें 30 मार्च, 1955 को सरकार को सौंप दी। अपने प्रतिवेदन में कालेलकर आयोग ने 2399 पिछड़ी जातियों को सूचीबद्ध किया जिनमें से 837 को ‘अति पिछड़ा’ घोषित किया गया। इस आयोग ने सभी महिलाओं को पिछड़ी जाति के अंतर्गत शामिल किए जाने और सभी तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए 70% सीटों के आरक्षण की सिफारिश की थी। इसके अलावा सभी सरकारी सेवाओं और स्थानीय निकायों में क्लास I पदों के लिए 25%, क्लास II पदों के लिए 33.5% तथा क्लास III और IV पदों के लिए 40% स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित करने की सिफारिश की गई थी। यदि भारतीय समाज में पिछड़े वर्गों की जनसंख्या के आधार पर शिक्षा और सेवा में उनको वास्तविक प्रतिनिधित्व देने की बात की जाए तो वे सिफारिशें बहुत हद तक न्यायसंगत थीं। लेकिन उस दौर के राजनीतिक परिदृश्य में पिछड़े वर्गों का नेतृत्व इतना संगठित और जागरूक नहीं था कि उन सिफारिशों पर अमल करवाने के लिए सरकार पर कोई सशक्त दबाव बना पाता। सत्ता, सरकार और राजनीति में अगड़ी कही जाने वाली जातियों का बोलबाला था। काका कालेलकर आयोग की सिफारिशें उस दौर के राजनीतिक हालात में अति क्रांतिकारी थीं, इसलिए उनका हश्र वही हुआ जो सुनिश्चित ही था। पंडित नेहरू की सरकार ने वे सिफारिशें बिल्कुल खारिज कर दीं। उसके बाद कांग्रेस की सरकारों ने पिछड़े वर्गों से संबंधित संवैधानिक उपबंधों को कार्यान्वित करने की दिशा में कोई सुगबुगाहट नहीं दिखाई। आपातकाल के बाद लोकनायक जयप्रकाश के आंदोलन की लहर में बनी जनता पार्टी की सरकार ने 1 जनवरी, 1979 को बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। मंडल आयोग ने अपनी सिफारिशें दिसम्बर, 1980 में सरकार को सौंप दीं। लेकिन तब तक जनता पार्टी की सरकार बिखर चुकी थी और सत्ता की बागडोर फिर से कांग्रेस पार्टी के हाथ में आ चुकी थी। इसलिए मंडल आयोग की सिफारिशें भी उस समय सरकार के ठंडे बस्ते में डाल दी गईं। मंडल आयोग ने अपनी सिफारिशों में कहा कि यद्यपि अन्य पिछड़े वर्गों की जनसंख्या देश की कुल जनसंख्या का लगभग 52% है, लेकिन 50% से अधिक आरक्षण नहीं होने की कानूनी बाध्यता को ध्यान में रखते हुए पहले से अनुसूचित जाति को तथा अनुसूचित जनजाति को उनकी जनसंख्या के अनुपात में दिए जा रहे क्रमश: 15% तथा 7.5% आरक्षण को बरकरार रखते हुए पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण की गुंजाइश बचती है, लिहाज़ा उन्हें कम से कम 27% आरक्षण दिया ही जाना चाहिए। मंडल आयोग ने अपनी सिफारिशों में स्पष्ट रूप से यह कहा कि अन्य पिछड़े वर्ग के जो प्रतियोगी प्रतिभा के आधार पर सामान्य श्रेणी के अंतर्गत सफल होते हैं, उन्हें अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित 27% सीटों के दायरे में नहीं समायोजित किया जाना चाहिए। इसके अलावा, नहीं भरी जा सकी आरक्षित सीटों को तीन वर्षों तक आगे बरकरार रखा जाना चाहिए। अन्य पिछड़े वर्गों के मामले में भी प्रत्येक श्रेणी के पद के लिए उसी प्रकार की रोस्टर प्रणाली अपनायी जानी चाहिए जैसा कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के मामले में अपनायी जाती है। इसके अलावा भर्ती के लिए उच्चतम आयु सीमा में अन्य पिछड़े वर्ग के प्रत्याशियों को भी छूट दी जानी चाहिए। मंडल आयोग ने अपनी सिफारिशों के संबंध में बल देते हुए यह कहा कि इन्हें केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों तथा सरकारी उपक्रमों तथा राष्ट्रीयकृत बैंकों में की जाने वाली सभी भर्तियों के मामले में लागू किया जाना चाहिए। इसके अलावा, निजी क्षेत्र के उन सभी संगठनों में भी उपर्युक्त आधार पर आरक्षण को लागू किया जाना चाहिए जो किसी न किसी रूप में सरकार से आर्थिक सहायता लेते हैं। इन सिफारिशों में कहा गया कि दूसरे चरण में, सभी स्तरों पर पदोन्नति तथा सभी विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थाओं में भी आरक्षण की उपर्युक्त योजना को लागू किया जाना चाहिए। कालचक्र ने दिया अनुकूल अवसर जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि मंडल आयोग की सिफारिशों को इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेसी सरकारों ने जानबूझकर ठंडे बस्ते में डाले रखा। लेकिन 1989 में संयुक्त मोर्चे की सरकार का नेतृत्व कर रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकार से अलग हुए देवीलाल की चुनौती का सामना करने के लिए आनन-फानन में 7 अगस्त, 1990 को घोषणा कर दी कि सरकारी सेवाओं और सरकारी उपक्रमों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27% स्थान आरक्षित किए जाने संबंधी मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाएगा। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के संबंध में विश्वनाथ प्रताप सिंह की न तो पहले से कोई योजना नहीं थी और न ही वह सामाजिक न्याय की विचारधारा को मानने वाले नेता थे। यहाँ तक कि घोषणा करने से पहले उन्होंने अपने मंत्रिमंडल के सबसे घनिष्ठ सहयोगियों बीजू पटनायक, रामकृष्ण हेगड़े, यशवंत सिन्हा और अरुण नेहरु से भी कोई परामर्श नहीं किया था। सरकार को समर्थन कर रही वामपंथी पार्टियाँ और भारतीय जनता पार्टी भी इस घोषणा से क्षुब्ध थीं। देवीलाल और चन्द्रशेखर तक ने उन सिफारिशों को इतनी हड़बड़ी में लागू किए जाने पर खुलकर आलोचना की थी। प्रेस और मीडिया ने भी, जिसमें ऊँची जातियों के लोगों का वर्चस्व है, इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर आरक्षण का मुखर विरोध ही किया। तात्पर्य यह कि तथाकथित ऊँची जातियों का कोई भी व्यक्ति वास्तव में पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण का संवैधानिक अधिकार दिए जाने के पक्ष में नहीं था। शायद कालचक्र ही घूमते-घूमते उस घड़ी में आ पहुँचा था जब हजारों वर्षों के अन्याय, उपेक्षा और तिरस्कार के बाद पिछड़े वर्गों के दिन फिर से सँवरने वाले थे। यही कारण रहा होगा इसीलिए हिंसक विरोध और उत्तेजक प्रतिक्रिया के बावजूद विश्वनाथ प्रताप सिंह का निश्चय अटल रहा और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण दिए जाने का प्रावधान कार्यान्वित हो गया। हालाँकि उस समय मंडल आयोग की सिफारिशें आंशिक रूप से ही लागू की जा सकीं। विश्वविद्यालयों एवं शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण अब एक बार फिर पिछड़े वर्गों के लिए अनुकूल स्थितियाँ बन रही हैं, जब मंडल आयोग की कुछ अन्य सिफारिशों को लागू करने का प्रस्ताव किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इस बार यह प्रस्ताव कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की ओर से आया है। हालाँकि इस मामले में सरकार के इरादे की गंभीरता संदेह के दायरे में है। संविधान के अनुच्छेद 15(5) के अधीन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और केन्द्र सरकार द्वारा वित्तपोषित शैक्षिक संस्थाओं में अन्य पिछले वर्ग के छात्रों को 27% आरक्षण दिए जाने का मौजूदा प्रस्ताव मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की ओर से आया है जो मौजूदा सरकार और कांग्रेस पार्टी में इतनी प्रभावी स्थिति में नहीं हैं कि इस प्रस्ताव को अपने दम पर कार्यान्वित करवा सकें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी की तरफ से इसके पक्ष में कोई बयान तक नहीं आया है। राजनीति के जानकार इस प्रस्ताव को कुछ राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं। कुछ जानकार इसे तीसरे मोर्चे के एक बार फिर से संगठित होने की कवायद के आगे बढ़ने से पहले ही उसे मात देने की कांग्रेसी पहल के रूप में देख रहे हैं। लेकिन प्रेस और मीडिया का एक बड़ा वर्ग हमेशा की तरह आरक्षण के इस प्रस्ताव पर शुरू से विरोध का झंडा बुलंद करने में जुट गया है। प्रेस और मीडिया जनता को मिले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार और सूचना के अधिकार का ही उपयोग करते हुए अपना व्यवसाय चलाता है, लेकिन उसमें 95% प्रतिनिधित्व ऊँची जातियों का है, वह भारतीय समाज का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता, इसलिए वह पिछड़ी जातियों को संविधान-सम्मत अधिकारों से वंचित करने के लिए अपनी मुहिम में एक बार फिर से संगठित रूप से जुट गया है। आरक्षण संबंधी संवैधानिक प्रावधानों का मखौल उड़ाने और उनके विरोध को प्रायोजित करने की उसकी यह रणनीति दरअसल उसकी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा को ही प्रभावित करेगी। पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का विरोध करते समय प्रगतिशील बौद्धिकता और सामाजिक न्याय के आवरण को ओढ़े रखने की कोशिश करने वालों इन पत्रकारों और ‘विशेषज्ञों’ की ओर से अकसर आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने की वकालत की जाती है। वे दरअसल भलीभाँति जानते हैं कि परिश्रम, शिल्प-कौशल और अध्यवसाय से संपन्न पिछड़ा वर्ग परिस्थिति की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अपनी आर्थिक स्थिति को लगातार मजबूत करने के उद्यम में लगा रहता है, भले ही उसके लिए शिक्षा और सत्ता के दरवाजे बंद कर दिए गए हों। यदि आरक्षण का आधार आर्थिक हो और उसके लिए राजस्व अधिकारियों द्वारा जारी आय प्रमाण पत्र ही मानदंड हो तो अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित आय प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा आय प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर। आरक्षण-विरोधियों द्वारा दूसरा सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि आरक्षण के प्रावधान से प्रतिभा के सही विकास में बाधा आएगी और पिछड़ी जाति के कमजोर प्रतियोगी प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए आयोजित प्रतियोगिता परीक्षा में ऊँची जाति के प्रतिभाशाली प्रतियोगियों की तुलना में कम अंक हासिल करने के बावजूद आरक्षण के आधार पर आगे निकल जाएंगे जिससे न सिर्फ उन शैक्षिक संस्थानों की उत्कृष्टता प्रभावित होगी, बल्कि उन संस्थानों से शिक्षा हासिल करके जो पेशेवर निकलेंगे उनकी योग्यता का स्तर भी अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप नहीं होगा। ये महानुभाव लोग भी अपने पुरखों की तरह मानकर चल रहे हैं कि प्रतिभा ऊँची जाति के साधन-सत्ता संपन्न लोगों की बपौती होती है जो केवल उन्हें ही जन्मजात मिलती है। उनका मानना है कि जो लोग उनकी बनाई हुई जाति-व्यवस्था में अपने पिछले जन्मों के अज्ञात बुरे कर्मों की वजह से पिछड़ी जाति के अनपढ़ माँ-बाप के घर में पैदा होते हैं उनके पास प्रतिभा हो ही नहीं सकती है। ऊँची जातियों के इस खुल्लमखुल्ला बेशर्म पक्षपात, अन्याय और दंभ के बावजूद पिछले पाँच हजार वर्षों में और विशेषकर भारतीय संविधान के लागू होने के बाद पिछड़े और दलित वर्गों के लाखों लोगों ने तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद बारंबार यह साबित किया है कि प्रतिभा तथाकथित ऊँची जातियों की बपौती नहीं होती, बल्कि प्रकृति के नैसर्गिक वरदान की तरह सर्वत्र विद्यमान रहती है, उसे केवल विकास के लिए अनुकूल माहौल की आवश्यकता होती है। प्राय: हर प्रतियोगिता परीक्षा के परिणाम में इस तथ्य को सहज ही देखा जा सकता है कि पिछड़े वर्ग के बहुत से छात्र आरक्षण का लाभ उठाए बगैर सामान्य श्रेणी के दायरे में प्रतिभा सूची में स्थान हासिल करने में सफल रहते हैं। फिर भी, विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का लाभ उनके अंदर छिपी प्रतिभा के विकास के लिए अनुकूल माहौल प्रदान करने के उद्देश्य से जरूरी है, क्योंकि प्रतिभा के विकास का समान अवसर दिए जाने के बाद ही स्वस्थ प्रतियोगिता संभव हो सकती है। जिन परिस्थितियों में भी संभव हो, यदि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार पिछड़े वर्गों के लिए विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थाओं में 27% आरक्षण के प्रावधान को लागू करा पाती है तो ऐसा करके वह न सिर्फ अपने संवैधानिक दायित्वों की पूर्ति करेगी, बल्कि अपने अपराध-बोध को भी कुछ हद तक कम कर सकेगी जो उसने पिछड़े वर्गों के प्रति पिछले 60 वर्षों में बरती लगातार उपेक्षा के कारण उनका समर्थन गँवाकर अर्जित की है। पदोन्नति में आरक्षण और निजी क्षेत्र में आरक्षण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की ही तरह पिछड़े वर्गों के लिए भी सरकारी सेवाओं में पदोन्नति के मामले में आरक्षण के प्रावधान को लागू किए जाने का मामला लंबे समय से उठाया जाता रहा है। मंडल आयोग की सिफारिशों में यह मुद्दा भी शामिल था। 1990 में सरकारी सेवाओं में भर्ती के समय आरक्षण दिए जाने के मामले पर जो विरोध हुआ उसको देखते हुए दूसरे चरण के आरक्षण को लागू करने के संबंध में बाद की कोई सरकार अब तक हिम्मत नहीं जुटा सकी है। हालाँकि इस विषय पर कुछ वर्षों से संसद एवं सरकार में विभिन्न स्तरों पर विचार चल रहा है और संबंधित संसदीय समिति ने भी प्रबल सिफारिश की है कि अन्य पिछड़े वर्ग के अधिकारियों और कर्मचारियों को भी अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की ही तरह पदोन्नति में आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए। विभाग-संबंधित कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष ई. एम. सुदर्शन नाचीयप्पन की ओर से 29 जून, 2005 को राज्य सभा के सभापति को प्रस्तुत और उसी दिन लोक सभा अध्यक्ष को अग्रेषित अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (पदों और सेवाओं में आरक्षण) विधेयक, 2004 से संबंधित आठवें प्रतिवेदन में समिति ने सिफारिश की है कि “अन्य पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान करने संबंधी संवैधानिक दायित्व को पूरा करने के लिए सरकार को पदोन्नति में भी अन्य पिछड़े वर्गों के सदस्यों को आरक्षण देने पर विचार करना चाहिए और इस प्रस्ताव को अमल में लाने के लिए संविधान संशोधन किया जाना चाहिए।” इसके अलावा, सरकारी क्षेत्र में नौकरियों की विरल संभावना को देखते हुए निजी क्षेत्र में भी आरक्षण के प्रावधान को लागू किए जाने के संबंध में विभिन्न मंचों पर विचार उठाए जा रहे हैं। इसके लिए दलित वर्ग और पिछड़ा वर्ग को संगठित और समन्वित संघर्ष करना होगा। यह लंबी लड़ाई है और हो सकता है कि इसके सफल होने के लिए कई दशकों तक इंतजार करना पड़े।

Saturday, April 08, 2006

नसीहतें

कोई आदमी इतना बुरा नहीं होता कि

अपनी गलती का अहसास कभी कर न सके।

वहम का कोई जाल इतना सघन नहीं होता कि

उसको काटकर ग़लतफ़हमी दूर न की जा सके।

कोई जख्म इतना गहरा नहीं होता कि

वक्त के साथ भर न जाए।

कोई फासला इतना बड़ा नहीं होता कि

उसको तय कर करीब न आया जा सके।

कोई मुश्किल ऐसी नहीं होती कि

कोशिशों से आसान न बन जाए।

कोई मंजिल इतनी दूर नहीं होती कि

चलते-चलते एक दिन करीब न आ जाए।

कोई चीज ऐसी नहीं खुदा की कायनात में कि

जिसका कोई खूबसूरत इस्तेमाल हो न सके।

कोई विफलता इतनी बड़ी नहीं होती कि

नए सिरे से कोशिश शुरू न की जा सके।

कभी भी इतनी देर नहीं होती कि

सही राह पर आना मुमकिन न रहे।

ऐसी नौबत कभी नहीं आती कि

आगे कोई उम्मीद बाकी न रहे।