आज शहीद दिवस यानी गाँधीजी की शहादत की 58वीं पुण्य तिथि पर मेरा मन कुछ ऐसे सवालों की ओर जाता है, जो आज की नई पीढ़ी के लिए प्रासंगिक होते हुए भी अबूझ किस्म की हैं। गाँधीजी को याद करते हुए कुछ लोग कहते हैं कि आज भारत को फिर से किसी गाँधी की जरूरत है। महात्मा गाँधी ने अपने जीवन काल में, अपने समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए जो कुछ किया, क्या आज की परिस्थितियों में उन्हीं सिद्धांतों और तरीकों को दोहरा करके वर्तमान समस्याओं का समाधान किया जा सकता है ? मेरे मन में कई बार यह सवाल भी उठता है कि यदि आज गाँधीजी हमारे बीच जीवित होते तो क्या कर रहे होते ?
जैसा कि हम जानते हैं कि गाँधीजी अपने अंतिम दिनों में सांप्रदायिक हिंसा की विकराल समस्या से जूझ रहे थे और जब तमाम प्रयासों के बावजूद देश के विभाजन को टाल पाने और सांप्रदायिक हिंसा की लहर को थाम पाने में वह विफल रहे तो गंभीर आत्ममंथन के दौर से गुजरने के बाद वह ब्रह्मचर्य के विशेष प्रयोग करने की तरफ उन्मुख हो गए। उनका मानना था कि उनकी उपस्थिति के बावजूद यदि भारत में हिंसा का तांडव रूक नहीं पा रहा है तो इसका अर्थ है कि स्वयं उनके भीतर अहिंसा फलीभूत नहीं हुई। इस समस्या का समाधान उन्हें ब्रह्मचर्य की सफल साधना में दिखाई दिया। उनके मन में यह पौराणिक धारणा बद्धमूल हो चुकी थी कि इन्द्रियों पर पूरी तरह से विजय हासिल कर चुके व्यक्तियों के समक्ष सिंह और मेमने साथ-साथ एक ही घाट पर पानी पीते हैं। इस धारणा से प्रेरित होकर अपने जीवन भर के तमाम अन्य प्रयोगों की शृंखला के अंत में उन्होंने ब्रह्मचर्य संबंधी कुछ गोपनीय प्रयोग किए, लेकिन इससे पहले कि उन प्रयोगों का निष्कर्ष वह स्वयं निकाल पाते और दूसरों को बता पाते, उनकी एक ऐसे शख्स ने हत्या कर दी, जो किसी दूसरे अर्थ में उनसे इत्तफाक रखता था कि भारत में सारी हिंसा की जड़ में गाँधीजी ही थे। गाँधीजी के सामने संभवत: बुद्ध का आदर्श रहा होगा। जिस प्रकार बुद्ध ने अंगुलिमाल को अभय और अहिंसा के जरिए हिंसा और आतंक के मार्ग से विरत किया था, ठीक उसी तरह गाँधीजी भी सांप्रदायिक हिंसा के माहौल से उद्वेलित लोगों को आत्म-शुद्धि और आत्म-विजय के जरिए शांति एवं अहिंसा के मार्ग पर लाना चाह रहे थे। उनके सामने संभवत: ईसा का उदाहरण भी रहा होगा, जो दूसरों के पाप के लिए क्षमा दिलाने हेतु स्वयं सूली पर चढ़ गए। गाँधीजी वास्तव में समष्टि चेतना के गहन धरातल पर एक ऐसा परिवर्तन कर देना चाहते थे, जिसके परोक्ष असर से लोगों का मानस अपने-आप बदल जाए और उनका नैतिक उत्थान हो जाए। गाँधीजी की हत्या की ख़बर फैलते ही अचानक इस तरह का असर कुछ समय के लिए पैदा भी हुआ था और ऐसा लगा कि हिंसा का दौर अब थम जाएगा।
लेकिन ऐसा हो न सका, क्योंकि सत्ता-प्राप्ति की लालसा, जिसे मैं पदानुक्रम की होड़ कहता हूँ, हिंसा में ही सफलता का शार्टकट देखती है। जिन्ना सत्ता हासिल करना चाहते थे। उन्हें इस्लाम और मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन चूँकि सांप्रदायिक आधार पर भारत-पाकिस्तान के विभाजन से उन्हें सत्ता मिल सकती थी, इसलिए लाखों लोगों को सांप्रदायिक दंगों की आग में झोंक देने में उन्हें कोई गुरेज नहीं हुआ। उधर, नेहरू किसी भी कीमत पर भारत के प्रधानमंत्री के पद से वंचित नहीं होना चाहते थे, इसलिए उन्हें भी जिन्ना के मातहत काम करने के बजाय देश का विभाजन श्रेयस्कर लगा। मेरा सोचना है कि गाँधीजी सांप्रदायिक हिंसा की समस्या को अपने ब्रह्मचर्य से जोड़ने की बजाय यदि पदानुक्रम के द्वंद्व से जोड़कर देखते तो शायद वह कुछ अधिक दूरगामी असर डाल पाते। हालाँकि गाँधीजी ने आजादी मिलने के बाद देश की सत्ता की बागडोर अपने हाथ में नहीं ली, बल्कि उन्होंने नेहरू को बाक़ायदा अपना उत्तराधिकारी घोषित करते हुए उनके हाथों में सत्ता सौंप दी। इस तरह देश में पदानुक्रम व्यवस्था यानी नंबर एक और नंबर दो के खेल का बीजारोपण स्वयं गाँधीजी ने ही किया। आज भारत में पदानुक्रम व्यवस्था इस तरह बद्धमूल ढंग से कायम हो चुकी है कि जीवन का कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं रह गया है।
फिर भी, गाँधीजी ने जिस नजरिए से अपने समय की परिस्थितियों का विश्लेषण किया और तत्कालीन जटिल समस्याओं के समाधान का मार्ग तलाशने की कोशिश की, उसका महत्व बहुत अधिक है। 21वीं शताब्दी के इस मोड़ पर हम दुनिया को जिस दशा और दिशा में पा रहे हैं, उसके पीछे अकेले गाँधी नामक कारक की वह भूमिका रही है, जो शायद बीसवीं शताब्दी की किसी अन्य परिघटना की नहीं रही। कोई चाहे तो इस बात को यों भी रख सकता है कि बीसवीं शताब्दी के घटनाक्रम ने मानव की समष्टिगत चेतना पर जो गुणात्मक असर डाला, गाँधी उसकी चरम निष्पत्ति थे।
गाँधीजी से पहले महामानवों के बारे में हमारी जो धारणा रही है वह अवतार, पैगंबर और दैवी कृपापात्र संतों एवं नायकों के रूप में रही है। लेकिन गाँधीजी पहले ऐसे व्यक्ति दुनिया में हुए जो इस बात के सबूत के रूप में आने वाले समय में देखे जाएंगे कि कोई सामान्य आदमी अपनी गलतियों से सीख करके, अपना लगातार परिमार्जन करके, अपने मनोबल एवं चरित्र बल के सहारे महानता की किन ऊँचाइयों तक पहुँच सकता है और जीवन की छोटी-छोटी बातों में सहज आत्म प्रेरणा के अनुरूप ईमानदारी से कार्य करते हुए कितने बड़े-बड़े उद्देश्यों को सफलतापूर्वक हासिल कर सकता है। हालाँकि अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक इस बात से आश्वस्त नहीं थे कि आने वाली पीढ़ियाँ गाँधी के बारे में पढ़-सुनकर यह विश्वास कर सकेंगी कि उनके जैसा हाड़-मांस का बना इंसान वास्तव में इस धरती पर कभी चलता-फिरता था।
लेकिन क्या गाँधीजी की चेतना का असर अब इतना क्षीण हो चुका है कि वह काल और परिस्थितियों की सीमाओं के परे काम नहीं कर सके? क्या मानवता का भविष्य इतना निराशाजनक है कि फिर से कोई आम आदमी अपने जीवन की परिस्थितियों का ईमानदारी और दृढ़ता से सामना करते हुए अपनी चेतना का महत्तम विकास नहीं कर सके ? सचाई तो यह है कि गाँधी की चेतना ने उन संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं जो मानवता का चिर प्रतीक्षित आदर्श रही हैं, जिसे आने वाली पीढ़ियाँ वास्तव में साकार होता देख सकेंगी।
गाँधीजी के संदर्भ में आज हम क्यों न इस बात पर विचार करें कि मानवता के जिन चिर प्रतीक्षित आदर्शों को साकार करने का लक्ष्य लेकर गाँधीजी आगे बढ़ रहे थे, उस दिशा में आगे की यात्रा को हम कैसे आगे जारी रख सकते हैं। मानवता के चिर-प्रतीक्षित आदर्श हैं - सत्य, प्रेम और न्याय। गाँधीजी मूलत: सत्य के शोधार्थी थे और अपनी शोधयात्रा में आगे बढ़ते हुए उनके सामने प्रेम का आदर्श भी दिखाई दिया, जिसे वह अहिंसा के माध्यम से प्राप्त कर सकने के लिए प्रयासरत रहे। अपनी आत्मकथा को गाँधीजी ने सत्य के प्रयोगों की संज्ञा दी है। लेकिन वह जानते थे कि सत्य एक तलवार की तरह है। युद्ध के मैदान में किसी योद्धा के पास केवल तलवार होना काफी नहीं है। उसके पास एक ढाल का होना भी जरूरी है। गाँधीजी की अहिंसा एक ढाल की तरह काम करती थी।
केवल सत्य के सहारे स्वतंत्रता हासिल तो की जा सकती है, लेकिन वैसी स्वतंत्रता केवल एकांत में ही हासिल हो पाती है और एकांत में ही सुरक्षित रह सकती है। क्योंकि दुष्ट प्रवृत्तियाँ इस दुनिया में किसी को स्वतंत्र रहने नहीं देना चाहती। यदि कोई अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हिंसा का सहारा लेना चाहे तो उससे उसकी स्वतंत्रता खुद ही नष्ट हो जाती है। यही वजह है कि जो क्रांतिकारी स्वतंत्रता हासिल करने के लिए हिंसा का सहारा ले रहे थे, उन्हें गिरफ्तारी से बचने के लिए अपने को हमेशा छिपा कर रखने का प्रयास करना पड़ता था।
गाँधीजी के संपूर्ण जीवन-संग्राम की सबसे बड़ी उपलब्धि थी स्वतंत्रता। स्वतंत्रता के लिए उनका संघर्ष केवल ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध नहीं थे। उनका संघर्ष वास्तव में जनता के मन में दासता की सदियों पुरानी जड़ों को उखाड़कर उन्हें स्वतंत्र, स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित करने की दिशा में सक्रिय था। इसीलिए उन्होंने चरख़े का अपने रचनात्मक अस्त्र के रूप में व्यापक इस्तेमाल किया। भारत के इतिहास में पहली बार उनके ही नेतृत्व में ऐसा संभव हो पाया कि आम जनता ने स्वतंत्रता के मौलिक और जन्मसिद्ध अधिकारों को हासिल करने के लिए शासक वर्ग के विरुद्ध निर्भीक भाव से संगठित परंतु अहिंसक आवाज उठाई। गाँधीजी वास्तव में भारतवासियों को पहले स्वशासन और लोकतंत्र के लिए तैयार करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आंदोलनों के साथ-साथ रचनात्मक कार्यक्रमों पर इतना अधिक बल दिया।
हमारे सामने यह सवाल भी है कि क्या हमें वैसी ही स्वतंत्रता मिली हुई है, जैसी गाँधीजी चाहते थे। हम गाँधीजी द्वारा दी गई कसौटी पर ही इसका मूल्यांकन करें तो इसका उत्तर मिल सकता है। गाँधीजी ने कसौटी दी थी: “जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शकल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुँचेगा? ….यानि क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृत्प है ? ” आजादी के 58 साल बीत जाने के बाद हम महसूस कर रहे हैं कि यह आजादी केवल कुछ ही लोगों के सुख-साधन और सत्ता भोग के लिए है। सच तो यह है कि आजादी के बाद कई दशकों तक आजादी का वास्तविक लाभ गाँधीजी के नाम का इस्तेमाल करके जनता का वोट हासिल करने वालों ने किया। लेकिन उनके विचारों और रचनात्मक कार्यक्रमों को जानबूझकर उनलोगों ने नजरंदाज कर दिया। गाँधीजी जहाँ जीवन भर आम आदमी के हक़ और न्याय के लिए संघर्ष करते रहे, वहाँ आजादी के बाद की सारी राजनीति मूलत: सत्ता पाने और उसे येनकेनप्रकारेन बरकरार रखने के एकमात्र लक्ष्य के प्रति केन्द्रित रही।
यदि गाँधीजी आज जीवित होते, तो वह ठीक उसी प्रकार से मौजूदा सत्ता व्यवस्था के विरुद्ध व्यापक जनांदोलन चला रहे होते, जिस प्रकार उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध चलाया था। आज हमारे देश का राजनीतिक परिवेश और सामाजिक वातावरण जिस प्रकार भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता के अंध भँवर में लगातार फँसता जा रहा है, उससे मुक्ति दिलाने के लिए कई देशवासी फिर से गाँधी जैसी किसी शख़्सियत की जरूरत शिद्दत से महसूस कर रहे हैं। लेकिन कैरियर की प्रतिस्पर्धा और दूसरों को कुचलकर हर कीमत पर आगे बढ़ जाने की होड़ के मौजूदा माहौल में फिर से गाँधी जैसे व्यक्तित्व और चरित्र का प्रादुर्भाव कैसे हो ? अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनकर सत्य के मार्ग पर अडिग रहते हुए न्याय के लिए संघर्ष को निर्भीकता से जारी रखते हुए किसी के भी प्रति मन में तनिक भी हिंसा का भाव नहीं आने देने की उदात्तता भला अब किसमें आ सकती है ?
जिनके मन में गाँधीजी के सत्य और अहिंसा रूपी महान सिद्ध अस्त्रों पर आस्था बरकरार है, उन्हें ऐसी कोशिश जरूर करनी चाहिए। यदि हम सत्य और अहिंसा के माध्यम से पदानुक्रम व्यवस्था की जड़ पर कुठाराघात कर सके और उसके स्थान पर न्याय आधारित समानता के आदर्श की प्रतिष्ठा कर सके तो निश्चय ही हम गाँधीजी की परंपरा को आगे बढ़ा सकते हैं। हालाँकि भारत के संविधान की उद्देशिका में सभी नागरिकों की “प्रतिष्ठा और अवसर की समानता” को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, लेकिन हमारी राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था जिस दिशा में बढ़ रही है वह भयंकर गैर-बराबरी पर आधारित है। हम लोकतांत्रिक मूल्यों के बजाय अन्यायमूलक पदानुक्रम सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था को लागू करते जा रहे हैं। आज देश के प्रथम नागरिक और अंतिम नागरिक के बीच का वास्तविक फासला इतना अधिक हो गया है कि इसे लोकतंत्र कहा ही नहीं जा सकता।
इसलिए जो लोग भारतीय लोकतंत्र को बचाने और गाँधीजी के सपनों के भारत को बनाने के लिए सत्य और अहिंसा के अस्त्रों पर आस्था रखते हुए अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनकर आगे आना चाहते हैं, उन्हें संगठित होकर प्रयास करना चाहिए। यदि ऐसे कुछ सच्चे लोग अब भी संगठित होकर प्रयास करें तो वह दिन दूर नहीं जब सही अर्थों में गाँधी का स्वराज्य, जिसे वह “रामराज्य” कहा करते थे, हासिल हो जाएगा।
******
Tuesday, January 31, 2006
Sunday, January 29, 2006
सृजन को बनाएँ मुक्ति का माध्यम
जब प्रकृति प्रदत्त जीवन ऊर्जा किसी कुशल व्यक्ति में अनुकूल सृजनशील दिशा का संधान कर लेती है तो वह सृजनकारी बन जाती है। यदि उस सृजन में सत्य की शक्ति और सबके प्रति प्रेम का आकर्षण मौजूद हो और वह निष्काम भाव से मानव धर्म की सदभावना के साथ सबको न्याय सुनिश्चित कराने की दिशा में प्रेरित हो तो जीवन ऊर्जा का चक्र पूरा हो जाता है और वह आत्मा को मुक्त कर देती है।
प्रतियोगिता और पदानुक्रम
यह संसार पदानुक्रम व्यवस्था (hierarchy) पर आधारित है। संसार और अध्यात्म के बीच का विभाजक बिन्दु पदानुक्रम व्यवस्था ही है । जब तक आप पदानुक्रम व्यवस्था के अंतर्गत हैं तब तक आप संसार में हैं और जिस क्षण आप पदानुक्रम व्यवस्था का अतिक्रमण करके साम्यावस्था में प्रविष्ट होते हैं उसी क्षण आप अध्यात्म के लोक में हैं। अमीबा से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त सभी पदानुक्रम व्यवस्था के अंतर्गत स्थित हैं । संसार का सबसे बड़ा सत्य यही है। संसार में सबके सामने सबसे बड़ा सवाल यही रहता है कि पदानुक्रम व्यवस्था में वह इस समय किस पायदान पर है । यही प्रश्न सभी जीवों को गतिशील रखता है और यही प्रश्न हर किसी को सबसे अधिक व्यथित भी करता है । धन्य हैं वे लोग जिन्हें यह प्रश्न व्यथित नहीं करता! वे या तो निर्जीव हैं या फिर परम ब्रह्म ।
हम इस बहस में फिलहाल पड़ना नहीं चाहते कि पदानुक्रम व्यवस्था गलत है या सही और यदि गलत है तो उसका विकल्प क्या है । क्योंकि इस बहस का इस समय कोई सार्थक महत्व नहीं होगा । जिन लोगों के लिए मुक्ति जीवन का परम उद्देश्य नहीं है, उनके सामने न तो अध्यात्म का कोई मतलब है और न ही इस सवाल का कि पदानुक्रम व्यवस्था से वे कैसे बाहर निकल सकते हैं । मुक्ति हमेशा से ऐसे इक्का-दुक्का विरले व्यक्तियों का जीवनोद्देश्य रहा है जो पदानुक्रम व्यवस्था से बाहर निकल सकने का हौसला रखते हैं । हम इस यथार्थ को स्वीकार करके चलते हैं कि हमें फिलहाल इसी संसार में जीना है और पदानुक्रम व्यवस्था के अंदर रहते हुए काम करना है । क्योंकि जब तक स्वयं ब्रह्म-तुल्य कोई आत्मा इस संसार का प्रत्यक्ष नियंत्रण अपने हाथ में नहीं ले लेती तब तक पदानुक्रम व्यवस्था इस संसार का सबसे बड़ा नियामक तत्व रहने वाली है । लेकिन जब कभी ऐसा हो सकेगा तब यह संसार, संसार नहीं रहेगा बल्कि अध्यात्म लोक बन जाएगा ।
पदानुक्रम व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र है - अपने से कमजोर पर नियंत्रण रखना, अपने से अधिक शक्तिशाली को खुश रखना और अपने समकक्ष को प्रतियोगिता में पीछे रखना । यही सामान्य सूत्र है, चाहे इसका इस्तेमाल जो, जहाँ और जैसे करे। इस सूत्र को आज़माने में जो जितना सफल है वह पदानुक्रम व्यवस्था में उतना ही वरिष्ठ है ।
पदानुक्रम व्यवस्था में वरिष्ठता निर्धारण के कई मानदंड हैं । इन मानदंडों की हम कुछ सूत्रों के माध्यम से समझाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि हम पदानुक्रम के सोपान पर आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें यह देखना होगा कि इन मानदंडों के आधार पर हमारी वर्तमान स्थिति क्या है और कैसे हम अपनी स्थिति को लगातार मजबूत करते हुए औरों से आगे निकल सकते हैं ।
ध्यान रहे, प्रतियोगिता और पदानुक्रम की इस द्वंद्व भरी राह पर प्रेम का कोई स्थान नहीं हैं। जिनसे आप प्रेम करते हैं, उनसे प्रतियोगिता नहीं कर सकते। जिनसे आप प्रतियोगिता करना चाहते हैं, उनसे प्रेम नहीं कर पाएंगे। हालाँकि प्रतियोगिता के दौरान आपको अपने प्रतियोगी को हर वक्त इसी मुगालते में रखना है कि उनसे अधिक प्रेम आपको किसी अन्य से नहीं है। वह वक्त चला गया जब आप अपने प्रतियोगी से दुश्मनी करके, उसे नीचा दिखा करके, उसका शोषण करके, उसको अपने पैरों पर कुचल कर आगे बढ़ जाते थे। क्योंकि अगर आप ऐसा करेंगे तो आपका प्रतियोगी भी आपको नीचा दिखाने की भरसक कोशिश करेगा और भले ही वह खुद भी सफल नहीं हो पाए, लेकिन आपको भी नीचे गिरा देगा। इस प्रकार, आप सीढ़ी से आगे चढ़ने के बाद साँप के मुँह में पड़कर फिर से नीचे आ जाएंगे।
इसे उदाहरण से समझें। इराक़ ने ईरान और कुवैत से आगे बढ़ने के लिए उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की, लेकिन उसके परिणामस्वरूप उसे पलटवार झेलना पड़ा और आज उसकी स्थिति इन दोनों ही देशों से काफी बदतर हो गई है। इसीलिए, अमरीका ने अपने प्रतियोगियों से मित्रता की नीति अपनाई हुई है। वह दरअसल उन्हें पछाड़कर खुद आगे बढ़ना चाहता है, लेकिन वह यह भी जानता है कि अपने मजबूत प्रतियोगियों के साथ दुश्मनी मोल नहीं ले सकता है। इसीलिए उन्हें अपना मित्र बनाए हुए है। चीन और भारत जैसे देशों से उसकी दोस्ती इसी तरह की है। यहाँ तक कि चीन और भारत जैसे देश भी अमरीका के असली इरादे से वाकिफ हैं, लेकिन यदि उन्हें स्वयं आगे बढ़ना है तो उन्हें फिलहाल अमरीका को अपने अनुकूल बनाए रखना होगा। बहरहाल, इस उदाहरण को आप व्यक्तियों के संदर्भ में अपने व्यक्तिगत जीवन में भी तलाश सकते हैं।
आपको संसार की पदानुक्रम व्यवस्था में यदि अपना स्थान आगे रखना है तो सबसे पहले आपको प्रतियोगिताओं के दौर से गुजरना होगा। आपने किस स्तर की प्रतियोगिता में कैसा स्थान पाया है, इसी से संसार की पदानुक्रम सोपान में आपका स्थान निर्धारित होगा। यदि आप भारत सरकार की सेवा में जाना चाहते हैं तो संघ लोक सेवा आयोग अथवा कर्मचारी चयन आयोग या संबंधित मंत्रालय, विभाग, संस्थान या कार्यालय द्वारा आयोजित की जाने वाली प्रतियोगिता परीक्षा में शामिल होकर अन्य प्रतियोगियों से खुद को श्रेष्ठतर साबित करना होगा। मान लीजिए कि आपका चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में हो गया, तब भी उसमें आपको रैंक कैसा मिला, इसी से पूरे कैरियर में आपकी वरिष्ठता और पदोन्नति निर्धारित होगी। सभी आई.ए.एस. अधिकारी कैबिनेट सचिव नहीं बन पाते। जिसका रैंक काफी ऊपर होता है, उन्हीं को यह पद प्राप्त होने की संभावना रहती है। लेकिन यह तो महज शुरुआत है। पदानुक्रम में आपकी स्थिति अन्य बहुत सी बातों पर निर्भर करेगी।
आपसे पहले जो लोग आई.ए.एस. में आ चुके हैं, वे अपने अनुभव की वरिष्ठता की वजह से आपसे श्रेष्ठ हैं और आपके पूरे कैरियर में वे आपसे वरिष्ठ ही बने रहेंगे, भले ही आपमें उनसे अधिक प्रतिभा हो। लेकिन इसमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। भले ही उनके पास आपसे अधिक अनुभव है, फिर भी यदि आप चाहें तो उनसे आगे बढ़ने में सफल हो सकते हैं। इसके लिए आपको अपने सहकर्मियों, विशेषकर अपने अधीनस्थ कर्मचारियों का विश्वास जीतना होगा और उनका समर्थन हासिल करना होगा। इसके अलावा, अपने कार्य के दौरान आपका सरोकार जिन-जिन लोगों के साथ पड़ता है, यदि वे भी आपके अनुकूल हैं और आपका सहयोग करते हैं तो आप निश्चय ही दूसरों से बाजी मार ले जाएंगे। यदि आप ऐसा करने में विफल रहते हैं तो बहुत संभव है कि आगे की प्रतियोगिता में आप पीछे रह जाएं। आपके अधीनस्थ कर्मचारियों के लिए भी यही श्रेयस्कर है कि आप उनके अनुकूल बने रहें। क्योंकि पदानुक्रम के इस खेल में सफलता का अगला सूत्र ही यही है कि आप अपने से वरिष्ठ को अपने अनुकूल बनाए रखें। क्योंकि आपकी पदोन्नति और कैरियर में आगे बढ़ने की सारी संभावनाएं बहुत हद तक इसी बात पर निर्भर करती है कि आपके वरिष्ठ अधिकारी आपका वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन (ए.सी.आर.) कैसा लिखते हैं। अच्छे ए.सी.आर. के अभाव में आपकी पदोन्नति की संभावनाएँ धूमिल ही रहेंगी। मैं जो सूत्र आपको यहाँ बतला रहा हूँ, वह केवल सरकारी अधिकारियों के लिए ही नहीं है। आप चाहे किसी भी कैरियर में हों, ये सारे सूत्र उन सभी मामलों में लागू होते हैं। आपको अपने वरिष्ठ व्यक्तियों को अपने अनुकूल बनाए रखना है या यों कहिए कि उन्हें खुश रखना है। इसका मतलब यह नहीं है कि आप उनकी चाटुकारिता करें या उनकी गलत अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए विवश रहें। आपको केवल उन्हें यह भरोसा दिलाए रखना है कि उनकी सफलता में आपका सहयोग उन्हें सतत मिलता रहेगा। आपको मैं महाभारत के कर्ण का उदाहरण देता हूँ। कर्ण प्रतियोगिता में प्राप्त प्रतिभा क्रम के मामले में अर्जुन एवं अपने समय के अन्य धनुर्धरों से कहीं आगे था। लेकिन वह पदानुक्रम में इसीलिए पिछड़ा रहा क्योंकि उसे अपने समकालीन वरिष्ठ व्यक्तियों की अनुकूलता हासिल नहीं हो सकी। भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कृष्ण और यहाँ तक कि गुरु परशुराम भी उसके अनुकूल नहीं रहे। जबकि अर्जुन इन सभी के प्रिय पात्र थे। इसी तरह आप जवाहरलाल नेहरु का उदाहरण भी देख सकते हैं। महात्मा गाँधी की सर्वाधिक अनुकूलता उन्हें ही प्राप्त थी, इसलिए वे अपने सभी समकक्ष नेताओं से पदानुक्रम सोपान में आगे निकल गए।
लेकिन प्रतियोगिता के इस सारे प्रपंच के बीच आपको कुछ बातों का ध्यान विशेष रूप से रखने की जरूरत है। आपको अपने स्वास्थ्य, समृद्धि और ज्ञान का सतत विकास करते रहना चाहिए। क्योंकि यही तीन ऐसे मूल साधन हैं जिनके माध्यम से आप इस प्रतियोगिता में टिके रह सकते हैं। यदि इन तीनों साधनों के प्रबंधन में आप अकुशल हैं तो फिर आप बहुत आगे नहीं जा सकेंगे।
इसके बाद अगला सूत्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आपकी विरासत भी पदानुक्रम में आपकी स्थिति को मजबूत करने में बहुत हद तक सहायक होती है। इस संदर्भ में कर्ण का उदाहरण मैं एक बार फिर से आपको दोहराता हूँ। कर्ण के पास समस्त प्रतिभा के बावजूद पारिवारिक-सामाजिक विरासत के लाभ से वे वंचित थे। इसीलिए उन्हें जीवन भर अपमान और उपेक्षा के दौर से गुजरना पड़ा। अभिषेक बच्चन को पारिवारिक-सामाजिक विरासत का भरपूर लाभ मिला, इसलिए उसे अभिनय के कैरियर में अपने को स्थापित करने में बहुत सहायता मिली। वरना, बहुत से नए अभिनेता ऐसे हैं, जो अभिनय की गुणवत्ता के मामले में अभिषेक से कहीं बेहतर हैं, लेकिन बालीवुड में किसी फादर या गॉडफादर की छत्रछाया उन्हें हासिल नहीं है और वे अपने को स्थापित करने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। लेकिन मैं आपको निराश कतई नहीं कर रहा हूँ। यदि आपको पहले से पारिवारिक-सामाजिक विरासत का लाभ नहीं मिला तो क्या हुआ। आप पदानुक्रम व्यवस्था में अपना स्थान मजबूत कीजिए और आने वाली पीढ़ी के लिए अच्छी विरासत छोड़ कर जाएँ। हो सकता है कि आपकी संतान को आपकी विरासत का इतना लाभ मिल जाए कि आपको हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति हो जाए।
और अंत में, मैं आपको सबसे महत्वपूर्ण सूत्र देना चाहता हूँ। प्रतियोगिता और पदानुक्रम के इस होड़ में आप चाहे जितने सफल हो जाएँ, उसका स्थायित्व अंतत: इस बात पर निर्भर करेगा कि आपका चरित्र कैसा है और दूसरे लोगों के मन में आपकी छवि कैसी है। जब सोनिया गाँधी को प्रधान मंत्री के पद के लिए सबसे योग्य व्यक्ति की तलाश थी तो इस चयन का मुख्य आधार था मनमोहन सिंह का चरित्र और सोनिया के मन में उनकी छवि। इसलिए भले लोगों, आप बेशक प्रतियोगिता की होड़ में उतरें और आगे बढ़ने का भरसक प्रयास करें, लेकिन अपने चरित्र को भूल मत जाएँ। चरित्र को गँवा कर पदानुक्रम के सोपान में आप कदापि आगे नहीं बढ़ सकते। बड़े-बड़े महात्मा और ऋषि-मुनि भी चरित्र के स्खलन के उपरांत अधोगति को प्राप्त होते देखे गए हैं।
Copyright© 2005-06 Srijan Shilpi. All rights reserved.
Subscribe to:
Posts (Atom)