Saturday, March 18, 2006

इंतजार

कब से इंतजार कर रहा हूँ मैं

कि तुम उतरो मेरे आँगन में

और मेरे हाथों में हाथ डालकर

मेरे साथ नाचो, गाओ, झूमो

देखो, मैं कितना खुश हूँ

पर खुशी को अकेले तो भोगा नहीं जा सकता

तुम भी आओ मेरे साथ

मेरी खुशियों के सहभागी बनो

तुम आओगे तो मैं यह भी भूल जाऊँगा कि

मैं किसी कारण से खुश था

मैं तो तुम्हारे आने की खुशी में ही पागल हो जाऊँगा

तुम्हारे आने की खुशी से बढ़कर और खुशी क्या होगी

तुम आ जाओ दोस्त मेरे

मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ।

बढ़ जाओ आगे तुम

बढ़ जाओ आगे तुम मैंने राह छोड़ दी है तुम्हारे लिए नहीं, हारा नहीं हूँ मैं पर मैं तुमसे लड़ा ही कब था मैंने लड़ना-भिड़ना छोड़ दिया है तुम इसे कायरता या पलायन मानते हो तो मानते रहो पर यह तुम भी जानते हो कि मैं वास्तव में क्या हूँ मेरे काम स्वयं ही प्रमाण हैं मेरी क्षमताओं के नहीं जरूरत है किसी सर्टिफ़िकेट की उसे। तुम तो कर्ण को भी अर्धरथी ही कहोगे सुभाष की जीत को तुम अपनी हार मान लोगे तुम जैसे लोग वॉन गॉग की कद्र जीते जी नहीं कर सकते कबीर को तुम कवि तक नहीं कह पाओगे तुम जगदीश बोस को प्राप्य श्रेय अपने नाम लूट लोगे ईसा को सूली पर चढ़ा दोगे तुम सुकरात को जहर दे दोगे तुम एकलव्य का अंगूठा माँग लोगे निहत्थे अभिमन्यु को सब घेरकर मार दोगे। तुम आज भी वही करोगे जो कल तक करते आए हो तुम कल भी वही करोगे जो आज कर रहे हो जाओ, मैं तुमसे क्या कहूँ तुमको कोई बददुआ देने का मन भी नहीं करता चले जाओ तुम, मैंने राह छोड़ दी है तुम्हारे लिए मुझे कुचलने का कष्ट मत करो तुम मैं खुद ही राह से हट गया हूँ हाँ, रणछोड़दास हूँ मैं। तुम बढ़ जाओ आगे, जहाँ तक जाना चाहते हो आख़िर कहाँ तक जाओगे तुमसे पहले भी बहुत लोग आगे गए हैं तुम्हारे बाद भी बहुत लोग जाएंगे तुम कहाँ तक पहुँच जाओगे कोई राह सीधी रेखा में नहीं है सारी गतियाँ वर्तुलाकार हैं लौट कर तुम फिर-फिर वही पहुँच जाओगे जहाँ से चले थे चाहे जीवन भर चलते रहो और चलते-चलते थक-चूर कर पस्त होकर मर जाओ।

Friday, March 17, 2006

चिर-प्रतीक्षित

कब से सुन रहा हूँ सुदूर से आती हुई तुम्हारे पदचापों की मधुर ध्वनि आ रहे हो तुम धीरे-धीरे हमारे बीच तुम्हारे आने की ख़बर हमें सदियों से है हम हर घड़ी तुम्हारे ही इंतजार में रहे हैं। पहुँच चुके हैं धरा पर तुम्हारे पगों के स्पंदन आ तो चुके हो मगर छुपे हो आम लोगों की ओट में न हो तुम कोई राजकुमार और न ही किसी पंडित की संतान न तो तुम किसी नेता के बेटे हो और न ही किसी अफसर के पुत्र इतने सीधे-साधे हो तुम कि लगते नहीं कि तुम ही हो। पुराणों ने कह दी थीं तुम्हारे आने की कथाएँ नास्त्रेदमस ने भी कर दी भविष्यवाणी हमें तुम्हारा नाम-पता मालूम था हमेशा से और तुम्हारे रूप व कर्म के विवरण भी लेकिन तुम तो वैसे लगते ही नहीं ! सूर्योदय की सुनहरी किरणों में झलकता था तुम्हारा तेजोमय रूप वर्षा की इंद्रधनुषी फुहारों में निखरता था तुम्हारी प्रभा का वलय हवा की बहारों में नादित होते थे तुम्हारे मधुर अस्फुट स्वर हर साँस के साथ उमड़ती थी प्यास तुम्हारी चिन्मयी शक्ति की लहरियों से जुड़ने की लेकिन अब तुम जब इतने सम्मुख हो तो तुम्हारी सहजता और सरलता ही असाधारण लगती है। क्षमा करना अवतारों-पैगम्बरों की कथाओं और दावों ने बुद्धि भ्रष्ट कर दी है हमारी शब्दों के भ्रमजाल से विकृत हो चुकी है संप्रेषण की हमारी शक्ति नेताओं, अभिनेताओं और साधुओं ने दिग्भ्रमित कर दिया है हमें निष्प्राण हो चुकी है हमारी संवेदना हम तुमको ठीक से पहचान नहीं पा रहे हैं। लेकिन फिर भी दिल में पक्का विश्वास है तुम वही हो जिसका हमें जन्मों-जन्मों से इंतजार है जिसके मन में न अहंकार है और न ही कोई स्वार्थ है जिसकी शक्ति प्रतिबद्ध है न्याय और धर्म के लिए हमारी सेवाएँ समर्पित हैं तुम्हारे ही लिए।

Monday, March 13, 2006

समीक्षा: 'शब्दभंग' (मारीशस का हिन्दी उपन्यास)

व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से लड़ने की आदर्शवादी चाह और साथ ही व्यक्तिगत जीवन में उन्नति के सोपान चढ़ने व अपने प्रियजनों के लिए सुख-सुविधा हासिल करने की महत्वाकांक्षा के द्वंद्व के कारण जिंदगी किस तरह बीहड़ और खतरनाक परिस्थितियों में उलझ जाती है और कई बार तमाम संघर्ष व कष्ट के बाद भी अंतत: हार और हताशा ही हाथ लगती है, इस कथानक को समकालीन दौर के साहित्य, रंगमंच व फिल्म में कई बार अपने-अपने तरह से दोहराया गया है। यथार्थ की ओर नई-नई भंगिमाओं के साथ बढ़ती साहित्यिक चेतना अब ‘सत्यमेव जयते’ के शाश्वत सिद्धांत का आग्रह किए बगैर जनजीवन में घट रही घटनाओं की निराशाजनक तस्वीर को यथातथ्य प्रस्तुत करने में हिचकती नहीं है। अपने हिन्दी उपन्यास ‘शब्दभंग’ में भी मारीशसवासी चर्चित लेखक अभिमन्यु अनत ने सच की एकल किंतु निर्भीक आवाज को भ्रष्ट व क्रूर सत्ता द्वारा खामोश कर दिए जाने की इसी पीड़ादायी हक़ीक़त को बेबाकी ढंग से प्रस्तुत किया है। यह उपन्यास भले ही मारीशस के आम हालात को प्रतिबिंबित करने के लिए लिखा गया हो, लेकिन भारतीय और खासकर हिन्दी पाठकों को भी हर क्षण भारतीय ही लगता है- सांस्कृतिक दृष्टि से तो स्वाभाविक रूप से, लेकिन राजनीतिक-आर्थिक हालात की समानता की दृष्टि से। वैसे भी, मारीशस हमारे लिए विदेश नहीं है, बल्कि उसे हम हिन्द महासागर में बसे छोटे-से हिन्दुस्तान के रूप में ही देखते-मानते आए हैं। मारीशस के साथ हमारा नाभि-नाल का प्राकृतिक व सहज संबंध है और रहेगा। खूंखार अपराधी माफिया, राजनेताओं के संरक्षण में अवैध गतिविधियों में लिप्त उद्योगपति, रक्षक के बजाय भक्षक बन चुकी पुलिस, सिफारिश व रिश्वत के आधार पर काम करने वाला प्रशासन, भ्रष्ट न्यायपालिका, सनसनी फैलाकर अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने और सत्ता के दबाव में आकर या उससे सुविधा पाने की चाह में ऐन वक्त पर घुटने टेक देने वाला प्रेस-मीडिया और इन सबके अपवित्र गठजोड़ के बल पर सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनेताओं की करतूतें चाहे भारत की हों या मारीशस की, हमारे लिए नई नहीं हैं। भ्रष्टाचार आज पूरी दुनिया की राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में ओतप्रोत हो गया है और हम पाते हैं कि इसकी गंगोत्री अकसर व्यवस्था के शीर्ष स्तर पर होती है। कभी-कभी कोई ईमानदार पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी अथवा कोई प्रतिबद्ध पत्रकार या ऐसा ही कोई जोशीला युवक महान आदर्शों से प्रेरित होकर या फिर स्वयं इस व्यवस्था से उत्पीड़ित होने के बाद प्रतिशोध लेने के लिए इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ जंग का ऐलान करता भी है तो वह अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में घिरकर अकाल मौत की नियति से गुजरने के लिए अभिशप्त हो जाता है। अधिकतर व्यक्तियों का आदर्शवादिता का यह भूत लोभ की मरीचिका और भय की ज्वालामुखी के कारण तुरंत ही विदा हो जाता है और आदमी को व्यवहारिकता व दुनियादारी के ठोस धरातल पर ला पटकता है। लेकिन कुछ लोग शायद एक अलग ही मिट्टी के बने होते हैं और अपना जीवट अंत तक बनाए रखते हैं। ऐसे लोगों का हश्र प्राय: उपन्यास के नायक रोबिन की तरह होता है। उसकी मौत अख़बार के छपते-छपते कॉलम में ‘शहर में एक रहस्यमयी दुर्घटना’ शीर्षक के अंतर्गत एक छोटी-सी दो पंक्ति की खबर बनकर रह जाती है और उसी के साथ भ्रष्ट व्यवस्था के असली चेहरों को बेनकाब करने वाली सारी रहस्यमयी जानकारियाँ और सारे सबूत भी हमेशा के लिए विलुप्त हो जाते हैं। इस तरह अन्याय, अधर्म और असत्य की (कु)व्यवस्था बदस्तूर जारी रहती है। कथानक की प्रकृति के कारण पूरे उपन्यास में शुरू से आखिर तक रहस्य और उत्सुकता का भाव बना रहता है। लेकिन अंत जिस अकस्मात ढंग से होता है, उससे एक धक्का-सा लगता है। शायद उपन्यासकार का यही उद्देश्य भी रहा हो, क्लाइमेक्स पर ले जाकर एक विस्फोट के साथ कथा का अंत करना। इसीलिए उपन्यास का नाम शब्दभंग रखा भी गया है। लेकिन इस अचानक अंत के बाद अगर उम्मीद की कोई किरण उपन्यासकार दिखाने से चूक जाए तो फिर उपन्यास का निहितार्थ क्या रहा? क्या षडयंत्रकारी राजनेताओं, माफिया अपराधियों का असली चेहरा दिखाना ही मक़सद है? भला उनके असली चेहरे से कौन पहले से वाक़िफ़ नहीं? अगर रोबिन सबूतों के साथ गुनहगारों के असली चेहरे बेनकाब कर भी देता तो व्यवस्था में भला कौन-सा बदलाव आ जाता? प्रेस या मीडिया अगर बहुत हिम्मत से काम करे तो किसी राजनेता की छवि को तो धूमिल कर सकता है, लेकिन उसे उसके गुनाहों की सज़ा दिलवाने में कामयाब हो जाए, यह उसके बूते से बाहर है। जनता की याददाश्त क्षणिक होती है। वह सब देखा-सुना भूल जाती है और फिर से उन्हीं लोगों को अपना प्रतिनिधि चुन लेती है। जिनके हाथ में सत्ता है और जिन लोगों ने सत्ता को अपने कब्जे में हथियाए रखने के लिए पूरी व्यवस्था के चरित्र को गंदला कर दिया है, उनका ऐसे एकाकी प्रयासों से कुछ खास बिगाड़ा नहीं जा सकेगा। दरअसल जरूरत बेहतर और सम्यक वैकल्पिक व्यवस्था का ढाँचा बनाने की है। इसके लिए संगठित और योजनाबद्ध ढंग से पूरी प्रतिबद्धता और सूझबूझ के साथ एक दीर्घकालीन एजेंडे के तहत गतिशील व निष्ठावान प्रयासों की जरूरत है। रोबिन जैसे एकाकी लोग नीचे से लेकर ऊपर तक व्यवस्था की सड़ांध को मिटाकर उसमें सुगंधि नहीं ला सकते। वह इसमें सक्षम भी नहीं है। वह अपने काम में कुशल और ईमानदार तो है, लेकिन इतनी लंबी और बड़ी लड़ाई के लिए तैयार और तत्पर नहीं है।

Saturday, March 11, 2006

क्या है लाभ के पद की परिभाषा ?

निर्वाचन आयोग ने समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह को उत्तर प्रदेश विकास परिषद के अध्यक्ष के रूप में लाभ का पद धारण करने के कारण राज्य सभा की सदस्यता से अयोग्य घोषित किए जाने के मामले में जारी नोटिस का उत्तर 31 मार्च तक देने के लिए कहा है। निर्वाचन आयोग ने यह कदम इस संबंध में की गई एक शिकायत पर कार्रवाई करने हेतु राष्ट्रपति द्वारा निर्वाचन आयोग से राय मांगे जाने के बाद उठाया है। इससे पहले निर्वाचन आयोग समाजवादी पार्टी की ही एक अन्य राज्य सभा सदस्य जया बच्चन को उत्तर प्रदेश फिल्म विकास परिषद की अध्यक्ष के रूप में लाभ के पद पर होने के आधार पर संसद की सदस्यता के अयोग्य घोषित किए जाने की सिफारिश कर चुका है। इसके बाद जया बच्चन ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करके केन्द्रीय और राज्य सरकारों में लाभ के पद को परिभाषित किए जाने की गुजारिश की है। उधर उत्तर प्रदेश के शहरी विकास मंत्री आज़म खान को उत्तर प्रदेश जल निगम के अध्यक्ष के रूप में लाभ के पद पर होने के कारण अयोग्य घोषित किए जाने का मामला राज्यपाल ने निर्वाचन आयोग के पास भेजा हुआ है। अपनी पार्टी के नेताओं पर आए इस अप्रत्याशित संकट को टालने के लिए समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा उत्तर प्रदेश विधायिका (निरर्हता निवारण) संशोधन विधेयक, 2006 को जनवरी, 2003 से प्रभावी बनाते हुए पारित करा लिया है। हालांकि इस विधेयक को राज्यपाल की अनुमति मिल सकने की संभावना बहुत कम है। लेकिन इस पूरे प्रकरण ने संवैधानिक शब्द ‘लाभ के पद’ की स्पष्ट परिभाषा किए जाने की आवश्यकता और इस विषय पर संविधान विशेषज्ञों के बीच बहस को जन्म दे दिया है। संविधान में या संसद द्वारा पारित किसी अन्य विधि में “लाभ के पद” को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है, हालाँकि उसका उल्लेख बारंबार हुआ है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 (1)(क) के अनुसार, “कोई व्यक्ति संसद् के किसी सदन का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा यदि वह भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़कर, जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना संसद् ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है।” संविधान में दिए गए स्पष्टीकरण के मुताबिक, “कोई व्यक्ति केवल इस कारण भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है।” आगे अनुच्छेद 103 में कहा गया है कि “(1) यदि यह प्रश्न उठता है कि संसद् के किसी सदन का कोई सदस्य अनुच्छेद 102 के खंड (1) में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो गया है या नहीं तो वह प्रश्न राष्ट्रपति को विनिश्चय के लिए निर्देशित किया जाएगा और उसका विनिश्चय अंतिम होगा; और (2) ऐसे किसी प्रश्न पर विनिश्चय करने से पहले राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग की राय लेगा और ऐसी राय के अनुसार कार्य करेगा।” इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 191(1)(क) किसी राज्य की विधायिका के सदस्य के रूप में निर्वाचन के लिए इसी तरह की निरर्हता का उपबंध करता है। जुलाई, 2001 में उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन की संसद सदस्यता इस आधार पर रद्द कर दी थी कि राज्य सभा में निर्वाचन हेतु नामांकन पत्र दाखिल करते समय वह झारखंड सरकार द्वारा गठित अंतरिम झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद के अध्यक्ष के रूप में लाभ का पद धारण कर रहे थे। अपने निर्णय में न्यायालय ने संबंधित संवैधानिक उपबंधों की व्याख्या करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 102(1)(क) तथा अनुच्छेद 191(1)(क) का उद्देश्य विधायिका के सदस्यों के कर्तव्य और हित की बीच टकराव की आशंका को खत्म करना या उसे कम करना है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विधायिका के संबंधित सदस्य कार्यपालिका से आर्थिक लाभ पाने के कारण उसके अनुग्रह के अधीन नहीं आएँ, जो उन्हें संसद सदस्य/ विधायक के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन करते समय कार्यपालिका के प्रभाव के वश में ला सकता है। उक्त निर्णय में यह बात स्पष्ट हुई कि लाभ का पद धारण करने के कारण संसद की सदस्यता के लिए निरर्हत होने का आधार संसद सदस्य के रूप में उस व्यक्ति के कर्तव्य और हित के बीच टकराव की आशंका है। लेकिन उस निर्णय से एक और बात स्पष्ट हुई कि यदि किसी पद को विधि द्वारा स्पष्ट रूप से मंत्री पद के समतुल्य घोषित किया गया हो तो उसे धारण करने वाले व्यक्ति को लाभ का पद धारण करने के आधार पर निरर्हत नहीं समझा जाएगा। लाभ के पद संबंधी संसद की 15-सदस्यीय संयुक्त समिति किसी पद को लाभ का मानने या न मानने के मामलों का निर्धारण जिन मानदंडों के आधार पर करती है उनमें यह देखा जाता है कि क्या उस पद पर किसी व्यक्ति को नियुक्त करने और पद से हटाने के मामले में तथा उस पद के कार्य-निष्पादन और कार्यकरण के मामले में सरकार का नियंत्रण रहता है; क्या उस पद को धारण करने वाले व्यक्ति को संसद (निरर्हता निवारण) अधिनियम, 1959 की धारा 29(क) में परिभाषित ‘प्रतिपूरक भत्ता’ के अतिरिक्त कोई पारिश्रमिक दिया जाता है; क्या उस निकाय के पास कार्यपालिका, विधायिका अथवा न्यायपालिका की शक्तियों का प्रयोग करने अथवा निधियों के संवितरण, भूमि के आवंटन, लाइसेंस आदि जारी करने की शक्ति है; क्या उस पद को धारण करने से व्यक्ति संरक्षण के माध्यम से प्रभाव या शक्ति का प्रयोग कर सकता है। यदि इनमें से किसी भी मानदंड का उत्तर सकारात्मक है तो उस पद को धारण करने वाला व्यक्ति संसद सदस्य बनने के लिए निरर्हत यानी अयोग्य है। संसद (निरर्हता निवारण) अधिनियम, 1959 के अनुसार यदि किसी सांविधिक या गैर-सांविधिक निकाय अथवा कंपनी में सदस्य अथवा निदेशक के तौर पर कार्यरत व्यक्ति प्रतिपूरक भत्ते के अलावा किसी अन्य पारिश्रमिक का हक़दार नहीं है तो वह संसद सदस्य बनने के अयोग्य नहीं माना जाएगा। यहाँ प्रतिपूरक भत्ते का तात्पर्य उतनी धनराशि है जो संसद सदस्यों को मिलने वाले दैनिक भत्ता, वाहन भत्ता, आवास किराया भत्ता अथवा यात्रा भत्ता से अधिक न हो। लेकिन इसी अधिनियम में कुछ पदों को लाभ का पद होने के बावजूद उन्हें संसद सदस्य बन सकने की निरर्हता से छूट दी गई है। इस अपवाद के अंतर्गत केन्द्र सरकार अथवा किसी राज्य सरकार में मंत्री, राज्य मंत्री अथवा उप मंत्री, चाहे वह दर्जा पदेन हो या नाम से हो; संसद में विपक्ष के नेता; योजना आयोग के उपाध्यक्ष; संसद में सचेतक या संसदीय सचिव; राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, तथा राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष; एन.सी.सी., प्रादेशिक सेना या रिजर्व एवं सहायक वायु सेना अथवा होमगार्ड के सदस्य; मुम्बई, कलकत्ता या मद्रास के शेरिफ; किसी विश्वविद्यालय की सिंडिकेट, सीनेट, कार्यकारिणी समिति, परिषद अथवा कोर्ट के अध्यक्ष अथवा सदस्य; किसी विशेष प्रयोजन से भारत सरकार द्वारा विदेश भेजे गए प्रतिनिधिमंडल या मिशन के सदस्य; किसी लोक महत्व के मामले में सरकार को सलाह देने के लिए गठित किसी अस्थायी समिति के अध्यक्ष अथवा सदस्य; तथा ग्राम राजस्व अधिकारी आते हैं। संसद को यह अधिकार है कि वह किसी भी पद की निरर्हता पूर्वव्यापी प्रभाव से हटा सके अथवा लाभ का पद होने के बावजूद उसे निरर्हता के अपवाद के दायरे में शामिल कर सके। उदाहरण के लिए, लाभ के पद संबंधी वर्तमान संयुक्त संसदीय समिति ने पिछले वर्ष केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों तथा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षिक समिति के सदस्यों को निरर्हता के अपवाद के दायरे में शामिल करने की सिफारिश की थी। चूँकि इस बार यह मामला लाभ के पद की परिभाषा और उसके आधार को लेकर ही उच्चतम न्यायालय में लाया गया है, इसलिए आशा की जा सकती है कि लाभ के पद की परिभाषा पर समग्र दृष्टि से विचार किया जाएगा और इस संबंध में स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट हो सकेगी।