Friday, June 23, 2006

क्या करें ?

कुछ वर्ष पहले मैंने क्या करें (What to do) नामक एक उपन्यास पढ़ा था, जिसके लेखक मशहूर रूसी लेखक निकोलाई चेर्नीशेव्स्की हैं। यह दुनिया की कुछ चुनिंदा किताबों में से है। यह लेनिन और महात्मा गाँधी की सबसे प्रिय किताबों में से थी। इस उपन्यास में रहमेतोव, लोपुखोव और किरतानेव जैसे उदात्त नायकों की परिकल्पना की गई है जो नए और परिष्कृत मानव के आदर्श को निरूपित करते हैं। इसका महत्व इस दृष्टि से अधिक है कि बीसवीं सदी में कई ऐसे महापुरुष वास्तव में हुए जो उन्नीसवीं सदी में चेर्नीशेव्स्की द्वारा की गई परिकल्पना से भी कहीं अधिक महान साबित हुए। मेरा अपना विश्वास है कि इक्कीसवीं सदी में भी कुछ ऐसे महामानव अवश्य उभर सकेंगे जो अब तक के इतिहास में दर्ज महामानवों से भी कहीं अधिक महान सिद्ध होंगे।

उक्त उपन्यास की भूमिका में बताया गया है, “जीवन की सच्चाई को चेर्नीशेव्स्की साहित्यिक रचना की मूल कसौटी मानते थे और उनका यह उपन्यास इस कसौटी पर खरा उतरता है। इस उपन्यास का सर्वोपरि लक्ष्य लोगों के लिए सच्चे अर्थों में सच्ची मानवीय नैतिकता और सच्चे अर्थों में आध्यात्मिकता से समृद्ध जीवन का प्रचार करना है। यह राजनीतिक, सामाजिक और दार्शनिक उपन्यास...वास्तव में प्रेम की पुस्तक है। प्यार-मुहब्बत का उपन्यास नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों में प्रेम की पुस्तक जो यह बताती है कि असली, सच्चा प्यार क्या होता है और लोगों को मानव की तरह जीने और प्रेम करने के लिए किस चीज की जरूरत है। यह पुस्तक मनोरंजन और मनबहलाव के लिए नहीं है। यह परिपक्व और चिंतनशील पाठक के लिए है।” लेनिन ने इस उपन्यास के संबंध में लिखा है, "चेर्नीशेव्स्की का यह उपन्यास इतना जटिल और गहन है कि उसे अल्पायु में समझना असंभव है। मैंने खुद, जहाँ तक याद है, 14 वर्ष की आयु में उसे पढ़ने की कोशिश की थी। तब यह व्यर्थ, सतही पठन था। पर बड़े भाई को मृत्युदंड दिए जाने के बाद मैंने उसे फिर से ध्यान से पढ़ने का फैसला किया क्योंकि मुझे मालूम था कि क्या करें उपन्यास मेरे भाई की प्रिय पुस्तक था। और तब मैं उसे कई दिन नहीं, कई सप्ताह तक पढ़ता रहा। तभी मैं उसकी गहराई को समझा। यह एक ऐसी पुस्तक है जो आजीवन उत्साह प्रदान करती है।" चेर्नीशेव्स्की ने स्वयं अपने लेखन के बारे में लिखा है, “मुझमें रत्ती भर साहित्यिक प्रतिभा नहीं है। मेरी रूसी भी बहुत बुरी है। कोई बात नहीं—पढ़ते जाइए, भले लोगों, आप देखेंगे कि आपका समय व्यर्थ ही नष्ट नहीं हुआ। सत्य अत्यंत गौरवशाली ध्येय है, और जो लेखक इस ध्येय की सेवा करता है उसके सारे दोषों का विमोचन हो जाता है।...मेरी कहानी में जो भी गुण हैं उनमें से एक-एक सत्य और केवल सत्य की बदौलत है।” प्रस्तुत है इस उपन्यास से कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियाँ जो मैंने उपन्यास पढ़ते समय अपनी डायरी में लिख ली थीं:

  • मानव के लिए अपने कृत्य की सच्चाई, विवेकपूर्णता और नैतिकता की अनुभूति से अधिक बड़ा नैतिक लाभ नहीं होता है।
  • अच्छी जिंदगी केवल कमीनों के लिए होती है, उनके लिए नहीं जो ईमानदार हैं।
  • प्रेम के बिना एक भी चुम्बन मत देना किसी को, भले ही तुम्हें मर ही जाना क्यों न पड़े!
  • कोई भी मनुष्य अपने अस्तित्व को कुंठित किए बिना अकेला नहीं रह सकता। या तो निर्जीव बन जाओ अथवा नीचता से समझौता कर लो।
  • आप जिस व्यक्ति से प्रेम करती हैं, उसे ऐसा कोई काम अपने लिए करने की अनुमति नहीं देंगी, जिसे वह संभवतया अरुचिकर माने, वह आपके लिए तनिक-सा भी त्याग करे अथवा जरा-सी भी रियायत दे, उससे पहले आप मर जाना पसंद करेंगी। यही भाषा है अनुराग की, यही है प्रेम। यदि कोई अनुराग कुछ और बतलाता है तो यह निपट वासना है, जिसका प्रेम से कोई वास्ता नहीं।
  • जरा से भी तर्क अनुभव से संपन्न किसी निष्कपट साधारण व्यक्ति को धोखा देना बहुत कठिन काम है।
  • माल संभालकर रखो, चोर को बेकार ललचाओ मत।
  • सिद्धांत चाहे जितना भी नीरस क्यों न हो यह जीवन के सबसे सच्चे मूल-स्रोत से उसका साक्षात्कार कराता है और काव्य का निवास तो सचाई में ही होता है।
  • कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता, जिसके चरित्र में ऐसा कुछ न हो जो निष्कलंक है।

Wednesday, June 21, 2006

अर्धनारीश्वर और वाणभट्ट की आत्मकथा

इटली निवासी चिट्ठाकार मित्र सुनील जी ने अपने चिट्ठे पर प्रकाशित लेख मैं शिव हूँ में मेरी एक टिप्पणी का उल्लेख करते हुए मुझसे हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास वाणभट्ट की आत्मकथा के आधार पर किसी व्यक्ति में पुरुष और स्त्री के द्वंद्व का भारतीय दर्शन के दृष्टिकोण से विश्लेषण करने का अनुरोध किया है। उनके अनुरोध को ध्यान में रखते हुए उक्त उपन्यास को मैंने एक बार फिर से पढ़ा। उपन्यास में वर्णित दर्शन की व्याख्या से पहले इस उपन्यास के प्रासंगिक अंशों को उद्धृत कर देना मैं अधिक उपयुक्त समझता हूँ। उपन्यास के इन अंशों में आए संवाद इतने जीवंत और मर्मभेदी हैं कि वे पाठकों के समक्ष अपने आशय को स्वत: स्पष्ट कर देते हैं। फिर भी, यदि सुनील जी एवं अन्य पाठक चाहेंगे तो अगली प्रविष्टि में इसके दर्शन की व्याख्या करने का प्रयास करूँगा।

[1]

एक बात पूछूँ, माता?”

पूछो।

बाबा ने कल मुझसे जो कुछ कहा, उसका क्या अभिप्राय है?”

बाबा से अधिक मैं क्या बता सकती हूँ।

प्रवृत्तियों की पूजा करने का क्या तात्पर्य हो सकता है?”

बाबा ने क्या कहा है?”

बाबा ने कहा है कि प्रवृत्तियों से डरना भी गलत है, उन्हें छिपाना भी ठीक नहीं और उनसे लज्जित होना बालिशता है। फिर उन्होंने कहा है कि त्रिभुवन-मोहिनी ने जिस रूप में तुझे मोह लिया है, उसी रूप की पूजा कर, वही तेरा देवता है। फिर विरतिवज्र से उन्होंने कहाइस मार्ग में शक्ति के बिना साधना नहीं चल सकती। ऐसी बहुत-सी बातें उन्होंने बताईं जो अश्रुतपूर्व थीं। क्यों अंब, शक्ति क्या स्त्री को कहते हैं? और स्त्री में क्या सचमुच त्रिभुवन-मोहिनी का वास होता है?”

देख बाबा, तू व्यर्थ की बहस करने जा रहा है। बाबा ने जो कुछ कहा है वह पुरुष का सत्य है। स्त्री का सत्य ठीक वैसा ही नहीं है।

उसका विरोधी है, मात:?”

पूरक है रे! पूरक अविरोधी हुआ करता है!”

मैं समझ नहीं सका।

समझ जाएगा, तेरे गुरु प्रसन्न हैं, तेरी कुंडलिनी जाग्रत है, तुझे कौल-अवधूत का प्रसाद प्राप्त है, उतावला न हो। इतना याद रख कि पुरुष वस्तु-विच्छिन्न भावरूप सत्य में आनंद का साक्षात्कार करता है, स्त्री वस्तु-परिगृहीत रूप में रस पाती है। पुरुष नि:संग है, स्त्री आसक्त; पुरुष निर्द्वंद्व है, स्त्री द्वंद्वोन्मुखी; पुरुष मुक्त है, स्त्री बद्ध। पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है; पर स्त्री, स्त्री को शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है।

तो स्त्री की पूर्णता के लिए पुरुष को शक्तिमान मानने की आवश्यकता है न, अंब?”

ना। उससे स्त्री अपना कोई उपकार नहीं कर सकती, पुरुष का अपकार कर सकती है। स्त्री प्रकृति है। वत्स, उसकी सफलता पुरुष को बाँधने में है, किंतु सार्थकता पुरुष की मुक्ति में है। मैं कुछ भी नहीं समझ सका। केवल आँखें फाड़-फाड़कर महामाया की ओर देखता रहा। वे समझ गईं कि मैंने कहीं मूल में ही प्रमाद किया है। बोलीं, नहीं समझ सका न? मूल में ही प्रमाद कर रहा है, भोले! तू क्या अपने को पुरुष समझ रहा है और मुझे स्त्री? यही प्रमाद है। मुझमें पुरुष की अपेक्षा प्रकृति की अभिव्यक्ति की मात्रा अधिक है, इसलिए मैं स्त्री हूँ। तुझमें प्रकृति की अपेक्षा पुरुष की अभिव्यक्ति अधिक है, इसलिए तू पुरुष है। यह लोक की प्रज्ञप्तिप्रज्ञा है, वास्तव सत्य नहीं। ऐसी स्त्री प्रकृति नहीं है, प्रकृति का अपेक्षाकृत निकटस्थ प्रतिनिधि है और ऐसा पुरुष प्रकृति का दूरस्थ प्रतिनिधि है। यद्यपि तुझमें तेरे ही भीतर के प्रकृति-तत्व की अपेक्षा पुरुष-तत्व अधिक है; पर वह पुरुष-तत्व मेरे भीतर के पुरुष-तत्व की अपेक्षा अधिक नहीं है। मैं तुझसे अधिक नि:संग, अधिक निर्द्वंद्व और अधिक मुक्त हूँ। मैं अपने भीतर की अधिक मात्रावाली प्रकृति को अपने ही भीतरवाले पुरुष-तत्व से अभिभूत नहीं कर सकती। इसलिए मुझे अघोरभैरव की आवश्यकता है। जो कोई भी पुरुष प्रज्ञप्तिवाला मनुष्य मेरे विकास का साधन नहीं हो सकता।

और अघोरभैरव को आपकी क्या आवश्यकता है?”

मुझे मेरी ही अंत:स्थिता प्रकृति रूप में सार्थकता देना। वे गुरु हैं, वे महान हैं, वे मुक्त हैं, वे सिद्ध हैं। उनकी बात अलग है।

(षष्ठ उच्छ्वास से)

[2]

महामाया ने ही फिर शुरू किया—“तो तू मेरी बात नहीं मानती। हाँ बेटी, नारीहीन तपस्या संसार की भद्दी भूल है। यह धर्म-कर्म का विशाल आयोजन, सैन्य-संगठन और राज्य-व्यवस्थापन सब फेन-बुदबुद की भाँति विलुप्त हो जाएँगे; क्योंकि नारी का इसमें सहयोग नहीं है। यह सारा ठाठ-बाट संसार में केवल अशांति पैदा करेगा।

भट्टिनी ने चकित की भाँति प्रश्न किया—“तो माता, क्या स्त्रियाँ सेना में भरती होने लगें, या राजगद्दी पाने लगें, तो यह अशांति दूर हो जाएगी?”

महामाया हँसी। बोलीं, सरला है तू, मैं दूसरी बात कह रही थी। मैं पिंडनारी को कोई महत्वपूर्ण वस्तु नहीं मानती। तुम्हारे इस भट्ट ने भी मुझसे पहली बार इसी प्रकार प्रश्न किया था। मैं नारी-तत्व की बात कह रही हूँ रे! सेना में अगर पिंड-नारियों का दल भरती हो भी जाए तो भी जब तक उसमें नारी-तत्व की प्रधानता नहीं होती, तब तक अशांति बनी रहेगी।

मेरी आँखें बंद थीं, खोलने का साहस मुझमें नहीं था। परंतु मैं कल्पना के नेत्रों से देख रहा था कि भट्टिनी के विशाल नयन आश्चर्य से आकर्ण विस्फारित हो गए हैं। ज़रा आगे झुककर उन्होंने कहा, मैं नहीं समझी।

महामाया ने दीर्घ नि:श्वास लिया। फिर थोड़ा सम्हलकर बोलीं, परम शिव से दो तत्व एक ही साथ प्रकट हुए थेशिव और शक्ति। शिव विधिरूप हैं और शक्ति निषेधरूपा। इन्हीं दो तत्वों के प्रस्पंद-विस्पंद से यह संसार आभासित हो रहा है। पिंड में शिव का प्राधान्य ही पुरुष है और शक्ति का प्राधान्य नारी है। तू क्या इस मांस-पिंड को स्त्री या पुरुष समझती है? ना सरले, यह जड़ मांस-पिंड न नारी है, न पुरुष! वह निषेधरूप तत्व ही नारी है। निषेधरूप तत्व, याद रख। जहाँ कहीं अपने-आपको उत्सर्ग करने की, अपने-आपको खपा देने की भावना प्रधान है, वहीं नारी है। जहाँ कहीं दु:ख-सुख की लाख-लाख धाराओं में अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़कर दूसरे को तृप्त करने की भावना प्रबल है, वहीं नारी-तत्व है, या शास्त्रीय भाषा में कहना हो, तो शक्ति-तत्व है। हाँ रे, नारी निषेधरूपा है। वह आनंद-भोग के लिए नहीं आती, आनंद लुटाने के लिए आती है। आज के धर्म-कर्म के आयोजन, सैन्य-संगठन और राज्य-विस्तार विधि-रूप हैं। उनमें अपने-आपको दूसरों के लिए गला देने की भावना नहीं है, इसीलिए वे एक कटाक्ष पर ढह जाते हैं, एक स्मित पर बिक जाते हैं। वे फेन-बुदबुद की भाँति अनित्य हैं। वे सैकतसेतु की भाँति अस्थिर हैं। वे जल-रेखा की भाँति नश्वर हैं। उनमें अपने-आपको दूसरों के लिए मिटा देने की भावना जब तक नहीं आती, तब तक वे ऐसे ही रहेंगे। उन्हें जब तक पूजाहीन दिवस और सेवाहीन रात्रियाँ अनुतप्त नहीं करतीं और जब तक अर्ध्यदान उन्हें कुरेद नहीं जाता, तब तक उनमें निषेधरूपा नारी तत्व का अभाव रहेगा और तब तक वे केवल दूसरों को दु:ख दे सकते हैं।

(एकादश उच्छ्वास से)

Friday, June 16, 2006

मेरा जन्म दिन और मूल नक्षत्र

आज, 16 जून को मेरा जन्म दिन है। यही मेरी वास्तविक जन्म तिथि है, हालाँकि आधिकारिक प्रयोजनों के लिए मेरी जन्म तिथि 3 जनवरी है। जे.एन.यू. में अपने अध्ययन काल में और उसके कुछ वर्षों बाद तक मैं 3 जनवरी को ही अपना जन्म दिन मनाया करता था जिसमें मेरे बहुत से घनिष्ठ मित्र शामिल होते थे। मेरी मित्र-मंडली में दिल्ली के विभिन्न न्यूज चैनलों एवं समाचार पत्रों में कार्यरत युवा पत्रकार और दिल्ली के विभिन्न शिक्षण संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे युवा लेक्चरर तथा भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में कार्यरत युवा अधिकारी शामिल हैं। इनमें से कई साथी 3 जनवरी को मेरे जन्म दिन पर अपने पेशे की तमाम व्यस्तताओं के बावजूद पार्टी में शामिल होने का समय निकाल लेते थे। लेकिन अब 3 जनवरी को घर पर जन्म-दिन की पार्टी रखने का वह सिलसिला भंग हो गया है।

मुझे अपनी वास्तविक जन्म-तिथि पहले ज्ञात नहीं थी। हाई स्कूल के सर्टिफ़िकेट में उल्लिखित जन्म-तिथि को ही मैं अपना जन्म-दिन मनाकर खुश हो लिया करता था। लेकिन दो वर्ष पहले जब विवाह के लिए पारिवारिक दबाव और रिश्तों के प्रस्तावों को टालना मेरे लिए मुश्किल हो गया तो मैंने अपनी जन्म-कुंडली बनाने की सोची। लेकिन प्रामाणिक जन्म-कुंडली के लिए जन्म की तारीख और समय का ज्ञान होना बहुत जरूरी है। जब मैंने जन्म से संबंधित विवरणों के बारे में अपने माँ-पिताजी से पूछा तो वे भी सटीक रूप से इसे याद नहीं कर पाए। पिताजी ने शायद इसे कहीं डायरी में लिख कर रखा था, लेकिन खोजने पर 1973 की वह डायरी नहीं मिल पाई। शायद वह मेरे गाँव में प्राय: हर वर्ष आने वाली बाढ़ की भेंट चढ़ गई होगी। इसलिए मेरे लिए अपना जन्म-दिन एक पहेली बन गया था, जिसे मैंने बहुत खोजबीन और ज्योतिषीय गणनाओं के बाद अब सुलझा लिया है। इसके लिए मुझे कुछ नामचीन ज्योतिषियों की भी मदद लेनी पड़ी।

16 जून की तारीख मूल नक्षत्र में पड़ती है, जिसमें जन्म लेने वाले लोग जन्म से दुर्भाग्यशाली लेकिन कर्म से दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने वाले माने जाते हैं। तुलसीदास का उदाहरण विश्वविख्यात है। ऐसी मान्यता है कि मूल नक्षत्र में जन्म लेने वाले अधिकांश जातक अपने परिवार के लिए शोक का कारण बनते हैं। मूल नक्षत्र के चार भागों में से पहले तीन भाग अशुभ माने जाते हैं। इस नक्षत्र के पहले भाग में जन्म लेने वाला जातक पिता के शोक अथवा मृत्यु का कारण बनता है, दूसरे भाग में जन्म लेने वाला जातक अपनी माता के शोक अथवा मृत्यु का कारण बनता है, जबकि तीसरे भाग में जन्म लेने वाला जातक पारिवारिक संपत्ति की गंभीर हानि का कारक होता है। मेरी नानी का देहांत मेरी छठी का संस्कार समाप्त होने के तुरंत बाद अचानक हो गया था। इसके आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मेरा जन्म संभवत: मूल नक्षत्र के दूसरे भाग में हुआ होगा। मूल नक्षत्र के जातक को विरासत में कोई पैतृक संपत्ति प्राप्त नहीं होती। मूल नक्षत्र के जातकों की अन्य विशेषताओं के बारे में पढ़ने के बाद अपने जन्म-दिन के बारे में मेरी यह धारणा पुष्ट होती गई।

मूल नक्षत्र के जातक एक साथ कई क्षेत्रों में दिलचस्पी रखते हैं और उनमें विशेषज्ञता भी हासिल करते हैं और इसीलिए वे अपने कैरियर का क्षेत्र भी बारंबार बदलते रहते हैं। मेरे साथ तो यह प्रत्यक्ष ही हुआ है। पहले अध्यात्म, उसके बाद पत्रकारिता, फिर कार्यपालिका, उसके बाद विधायिका और अब न्यायपालिका के क्षेत्र में मेरी सक्रियता शायद मूल नक्षत्र में जन्म लेने के प्रभावस्वरूप ही बार-बार बदलती रही है। पिछले चार वर्ष में अपना कार्यस्थल मैं चार बार बदल चुका हूँ। बारंबार कार्यक्षेत्र बदलने के अपने नुकसान हैं जो मैं झेल रहा हूँ। मूल नक्षत्र के जातकों की एक बहुत बड़ी खामी यह है कि वे जिन बातों का उपदेश दूसरों को बहुत बेहतर ढंग से दे सकते हैं उनका पालन स्वयं अपने जीवन में कर पाना उनके लिए दुष्कर होता है। इसीलिए उन्हें सलाहकार की भूमिका के लिए अत्यंत उपयुक्त माना गया है। वैसे मूल नक्षत्र के अधिकतर जातक वक्ता, लेखक, दार्शनिक, आध्यात्मिक गुरु, वकील, राजनीतिज्ञ और डॉक्टर के रूप में अधिक सफल रहते हैं। जब मैं आत्मान्वेषण करता हूँ तो मुझे अपने अंदर इन सभी विशेषज्ञताओं के बीजांकुर मिलते हैं।

मैं सोचता हूँ कि ब्लॉग के माध्यम से मुझे अपने भीतर के उन बीजांकुरों को पल्लवित करने का मौका मिलेगा और शायद इसी तरह से मैं अपने जन्मजात दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिवर्तित कर पाऊँगा। मानसी जी ज्योतिष शास्त्र की विशेषज्ञ हैं, शायद वह कुछ बेहतर प्रकाश डाल सकें। बहरहाल आप मुझे आज जन्म-दिन की बधाई दे सकते हैं, जिसकी शुरुआत इंडिया टी.वी. के पत्रकार और हिन्दी ब्लॉग जगत के सक्रिय साथी नीरज दीवान ने आज पहली बार अकस्मात सुबह-सुबह फोन पर बधाई देकर कर दी है। शायद यह टेलीपैथी का ही कमाल होगा, जिसके चमत्कारों में मेरा गहरा विश्वास है। उन्हें तो पहले से पता भी नहीं था मेरे जन्म दिन का। लेकिन जब मैं आज सुबह-सुबह यह पोस्ट लिख रहा था तो अनायास ही उनका फोन आ गया और उन्होंने बताया कि अभी-अभी जगा हूँ और आपकी याद आने लगी तो मैंने फोन कर दिया।