Saturday, March 11, 2006

क्या है लाभ के पद की परिभाषा ?

निर्वाचन आयोग ने समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह को उत्तर प्रदेश विकास परिषद के अध्यक्ष के रूप में लाभ का पद धारण करने के कारण राज्य सभा की सदस्यता से अयोग्य घोषित किए जाने के मामले में जारी नोटिस का उत्तर 31 मार्च तक देने के लिए कहा है। निर्वाचन आयोग ने यह कदम इस संबंध में की गई एक शिकायत पर कार्रवाई करने हेतु राष्ट्रपति द्वारा निर्वाचन आयोग से राय मांगे जाने के बाद उठाया है। इससे पहले निर्वाचन आयोग समाजवादी पार्टी की ही एक अन्य राज्य सभा सदस्य जया बच्चन को उत्तर प्रदेश फिल्म विकास परिषद की अध्यक्ष के रूप में लाभ के पद पर होने के आधार पर संसद की सदस्यता के अयोग्य घोषित किए जाने की सिफारिश कर चुका है। इसके बाद जया बच्चन ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करके केन्द्रीय और राज्य सरकारों में लाभ के पद को परिभाषित किए जाने की गुजारिश की है। उधर उत्तर प्रदेश के शहरी विकास मंत्री आज़म खान को उत्तर प्रदेश जल निगम के अध्यक्ष के रूप में लाभ के पद पर होने के कारण अयोग्य घोषित किए जाने का मामला राज्यपाल ने निर्वाचन आयोग के पास भेजा हुआ है। अपनी पार्टी के नेताओं पर आए इस अप्रत्याशित संकट को टालने के लिए समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा उत्तर प्रदेश विधायिका (निरर्हता निवारण) संशोधन विधेयक, 2006 को जनवरी, 2003 से प्रभावी बनाते हुए पारित करा लिया है। हालांकि इस विधेयक को राज्यपाल की अनुमति मिल सकने की संभावना बहुत कम है। लेकिन इस पूरे प्रकरण ने संवैधानिक शब्द ‘लाभ के पद’ की स्पष्ट परिभाषा किए जाने की आवश्यकता और इस विषय पर संविधान विशेषज्ञों के बीच बहस को जन्म दे दिया है। संविधान में या संसद द्वारा पारित किसी अन्य विधि में “लाभ के पद” को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है, हालाँकि उसका उल्लेख बारंबार हुआ है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 (1)(क) के अनुसार, “कोई व्यक्ति संसद् के किसी सदन का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा यदि वह भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़कर, जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना संसद् ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है।” संविधान में दिए गए स्पष्टीकरण के मुताबिक, “कोई व्यक्ति केवल इस कारण भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है।” आगे अनुच्छेद 103 में कहा गया है कि “(1) यदि यह प्रश्न उठता है कि संसद् के किसी सदन का कोई सदस्य अनुच्छेद 102 के खंड (1) में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो गया है या नहीं तो वह प्रश्न राष्ट्रपति को विनिश्चय के लिए निर्देशित किया जाएगा और उसका विनिश्चय अंतिम होगा; और (2) ऐसे किसी प्रश्न पर विनिश्चय करने से पहले राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग की राय लेगा और ऐसी राय के अनुसार कार्य करेगा।” इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 191(1)(क) किसी राज्य की विधायिका के सदस्य के रूप में निर्वाचन के लिए इसी तरह की निरर्हता का उपबंध करता है। जुलाई, 2001 में उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन की संसद सदस्यता इस आधार पर रद्द कर दी थी कि राज्य सभा में निर्वाचन हेतु नामांकन पत्र दाखिल करते समय वह झारखंड सरकार द्वारा गठित अंतरिम झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद के अध्यक्ष के रूप में लाभ का पद धारण कर रहे थे। अपने निर्णय में न्यायालय ने संबंधित संवैधानिक उपबंधों की व्याख्या करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 102(1)(क) तथा अनुच्छेद 191(1)(क) का उद्देश्य विधायिका के सदस्यों के कर्तव्य और हित की बीच टकराव की आशंका को खत्म करना या उसे कम करना है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विधायिका के संबंधित सदस्य कार्यपालिका से आर्थिक लाभ पाने के कारण उसके अनुग्रह के अधीन नहीं आएँ, जो उन्हें संसद सदस्य/ विधायक के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन करते समय कार्यपालिका के प्रभाव के वश में ला सकता है। उक्त निर्णय में यह बात स्पष्ट हुई कि लाभ का पद धारण करने के कारण संसद की सदस्यता के लिए निरर्हत होने का आधार संसद सदस्य के रूप में उस व्यक्ति के कर्तव्य और हित के बीच टकराव की आशंका है। लेकिन उस निर्णय से एक और बात स्पष्ट हुई कि यदि किसी पद को विधि द्वारा स्पष्ट रूप से मंत्री पद के समतुल्य घोषित किया गया हो तो उसे धारण करने वाले व्यक्ति को लाभ का पद धारण करने के आधार पर निरर्हत नहीं समझा जाएगा। लाभ के पद संबंधी संसद की 15-सदस्यीय संयुक्त समिति किसी पद को लाभ का मानने या न मानने के मामलों का निर्धारण जिन मानदंडों के आधार पर करती है उनमें यह देखा जाता है कि क्या उस पद पर किसी व्यक्ति को नियुक्त करने और पद से हटाने के मामले में तथा उस पद के कार्य-निष्पादन और कार्यकरण के मामले में सरकार का नियंत्रण रहता है; क्या उस पद को धारण करने वाले व्यक्ति को संसद (निरर्हता निवारण) अधिनियम, 1959 की धारा 29(क) में परिभाषित ‘प्रतिपूरक भत्ता’ के अतिरिक्त कोई पारिश्रमिक दिया जाता है; क्या उस निकाय के पास कार्यपालिका, विधायिका अथवा न्यायपालिका की शक्तियों का प्रयोग करने अथवा निधियों के संवितरण, भूमि के आवंटन, लाइसेंस आदि जारी करने की शक्ति है; क्या उस पद को धारण करने से व्यक्ति संरक्षण के माध्यम से प्रभाव या शक्ति का प्रयोग कर सकता है। यदि इनमें से किसी भी मानदंड का उत्तर सकारात्मक है तो उस पद को धारण करने वाला व्यक्ति संसद सदस्य बनने के लिए निरर्हत यानी अयोग्य है। संसद (निरर्हता निवारण) अधिनियम, 1959 के अनुसार यदि किसी सांविधिक या गैर-सांविधिक निकाय अथवा कंपनी में सदस्य अथवा निदेशक के तौर पर कार्यरत व्यक्ति प्रतिपूरक भत्ते के अलावा किसी अन्य पारिश्रमिक का हक़दार नहीं है तो वह संसद सदस्य बनने के अयोग्य नहीं माना जाएगा। यहाँ प्रतिपूरक भत्ते का तात्पर्य उतनी धनराशि है जो संसद सदस्यों को मिलने वाले दैनिक भत्ता, वाहन भत्ता, आवास किराया भत्ता अथवा यात्रा भत्ता से अधिक न हो। लेकिन इसी अधिनियम में कुछ पदों को लाभ का पद होने के बावजूद उन्हें संसद सदस्य बन सकने की निरर्हता से छूट दी गई है। इस अपवाद के अंतर्गत केन्द्र सरकार अथवा किसी राज्य सरकार में मंत्री, राज्य मंत्री अथवा उप मंत्री, चाहे वह दर्जा पदेन हो या नाम से हो; संसद में विपक्ष के नेता; योजना आयोग के उपाध्यक्ष; संसद में सचेतक या संसदीय सचिव; राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, तथा राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष; एन.सी.सी., प्रादेशिक सेना या रिजर्व एवं सहायक वायु सेना अथवा होमगार्ड के सदस्य; मुम्बई, कलकत्ता या मद्रास के शेरिफ; किसी विश्वविद्यालय की सिंडिकेट, सीनेट, कार्यकारिणी समिति, परिषद अथवा कोर्ट के अध्यक्ष अथवा सदस्य; किसी विशेष प्रयोजन से भारत सरकार द्वारा विदेश भेजे गए प्रतिनिधिमंडल या मिशन के सदस्य; किसी लोक महत्व के मामले में सरकार को सलाह देने के लिए गठित किसी अस्थायी समिति के अध्यक्ष अथवा सदस्य; तथा ग्राम राजस्व अधिकारी आते हैं। संसद को यह अधिकार है कि वह किसी भी पद की निरर्हता पूर्वव्यापी प्रभाव से हटा सके अथवा लाभ का पद होने के बावजूद उसे निरर्हता के अपवाद के दायरे में शामिल कर सके। उदाहरण के लिए, लाभ के पद संबंधी वर्तमान संयुक्त संसदीय समिति ने पिछले वर्ष केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों तथा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षिक समिति के सदस्यों को निरर्हता के अपवाद के दायरे में शामिल करने की सिफारिश की थी। चूँकि इस बार यह मामला लाभ के पद की परिभाषा और उसके आधार को लेकर ही उच्चतम न्यायालय में लाया गया है, इसलिए आशा की जा सकती है कि लाभ के पद की परिभाषा पर समग्र दृष्टि से विचार किया जाएगा और इस संबंध में स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट हो सकेगी।

3 comments:

Unknown said...

उत्तम

Srijan Shilpi said...

जैसी कि आशंका थी, जया बच्चन की सदस्यता राष्ट्रपति ने समाप्त कर दी। अमर सिंह ने इस हश्र से बचने के लिए इस्तीफे की पेशकश कर दी है। लेकिन जब बात निकली है तो दूर तक जाएगी। अब देखना है कि अन्य कितनों को लाभ के पद पर होने का खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

वैसे यह भी खूब रही! एमपीलैड निधि में कमीशन मांगने की सजा सिर्फ एक सप्ताह का निलंबन और लाभ के पद की परिभाषा के तकनीकी आधार पर सदस्यता की समाप्ति। क़ानून की बारीकी नहीं जानने की इतनी बड़ी सजा!

Srijan Shilpi said...

जैसा कि मैंने अपनी पिछली टिप्पणी में व्यक्त किया था कि बात निकलेगी तो दूर तक जाएगी, लाभ के पद के मुद्दे पर अब श्रीमती सोनिया गाँधी को भी भारी विवाद के बाद लोक सभा की अपनी सदस्यता और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा है। संसद के बजट सत्र को अप्रत्याशित रूप से अनियत काल के लिए स्थगित कर दिया गया है। यहाँ तक कि सरकार इस विषय पर संसद में बहस से बचने के लिए अध्यादेश लाने की तैयारी कर चुकी है।