इटली निवासी चिट्ठाकार मित्र सुनील जी ने अपने चिट्ठे पर प्रकाशित लेख ‘मैं शिव हूँ’ में मेरी एक टिप्पणी का उल्लेख करते हुए मुझसे हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ के आधार पर किसी व्यक्ति में पुरुष और स्त्री के द्वंद्व का भारतीय दर्शन के दृष्टिकोण से विश्लेषण करने का अनुरोध किया है। उनके अनुरोध को ध्यान में रखते हुए उक्त उपन्यास को मैंने एक बार फिर से पढ़ा। उपन्यास में वर्णित दर्शन की व्याख्या से पहले इस उपन्यास के प्रासंगिक अंशों को उद्धृत कर देना मैं अधिक उपयुक्त समझता हूँ। उपन्यास के इन अंशों में आए संवाद इतने जीवंत और मर्मभेदी हैं कि वे पाठकों के समक्ष अपने आशय को स्वत: स्पष्ट कर देते हैं। फिर भी, यदि सुनील जी एवं अन्य पाठक चाहेंगे तो अगली प्रविष्टि में इसके दर्शन की व्याख्या करने का प्रयास करूँगा।
[1]
“एक बात पूछूँ, माता?”
“पूछो।”
“बाबा ने कल मुझसे जो कुछ कहा, उसका क्या अभिप्राय है?”
“बाबा से अधिक मैं क्या बता सकती हूँ।”
“प्रवृत्तियों की पूजा करने का क्या तात्पर्य हो सकता है?”
“बाबा ने क्या कहा है?”
“बाबा ने कहा है कि प्रवृत्तियों से डरना भी गलत है, उन्हें छिपाना भी ठीक नहीं और उनसे लज्जित होना बालिशता है। फिर उन्होंने कहा है कि त्रिभुवन-मोहिनी ने जिस रूप में तुझे मोह लिया है, उसी रूप की पूजा कर, वही तेरा देवता है। फिर विरतिवज्र से उन्होंने कहा—इस मार्ग में शक्ति के बिना साधना नहीं चल सकती। ऐसी बहुत-सी बातें उन्होंने बताईं जो अश्रुतपूर्व थीं। क्यों अंब, शक्ति क्या स्त्री को कहते हैं? और स्त्री में क्या सचमुच त्रिभुवन-मोहिनी का वास होता है?”
“देख बाबा, तू व्यर्थ की बहस करने जा रहा है। बाबा ने जो कुछ कहा है वह पुरुष का सत्य है। स्त्री का सत्य ठीक वैसा ही नहीं है।”
“उसका विरोधी है, मात:?”
“पूरक है रे! पूरक अविरोधी हुआ करता है!”
“मैं समझ नहीं सका।”
“समझ जाएगा, तेरे गुरु प्रसन्न हैं, तेरी कुंडलिनी जाग्रत है, तुझे कौल-अवधूत का प्रसाद प्राप्त है, उतावला न हो। इतना याद रख कि पुरुष वस्तु-विच्छिन्न भावरूप सत्य में आनंद का साक्षात्कार करता है, स्त्री वस्तु-परिगृहीत रूप में रस पाती है। पुरुष नि:संग है, स्त्री आसक्त; पुरुष निर्द्वंद्व है, स्त्री द्वंद्वोन्मुखी; पुरुष मुक्त है, स्त्री बद्ध। पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है; पर स्त्री, स्त्री को शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है।”
“तो स्त्री की पूर्णता के लिए पुरुष को शक्तिमान मानने की आवश्यकता है न, अंब?”
“ना। उससे स्त्री अपना कोई उपकार नहीं कर सकती, पुरुष का अपकार कर सकती है। स्त्री प्रकृति है। वत्स, उसकी सफलता पुरुष को बाँधने में है, किंतु सार्थकता पुरुष की मुक्ति में है।” मैं कुछ भी नहीं समझ सका। केवल आँखें फाड़-फाड़कर महामाया की ओर देखता रहा। वे समझ गईं कि मैंने कहीं मूल में ही प्रमाद किया है। बोलीं, “नहीं समझ सका न? मूल में ही प्रमाद कर रहा है, भोले! तू क्या अपने को पुरुष समझ रहा है और मुझे स्त्री? यही प्रमाद है। मुझमें पुरुष की अपेक्षा प्रकृति की अभिव्यक्ति की मात्रा अधिक है, इसलिए मैं स्त्री हूँ। तुझमें प्रकृति की अपेक्षा पुरुष की अभिव्यक्ति अधिक है, इसलिए तू पुरुष है। यह लोक की प्रज्ञप्तिप्रज्ञा है, वास्तव सत्य नहीं। ऐसी स्त्री प्रकृति नहीं है, प्रकृति का अपेक्षाकृत निकटस्थ प्रतिनिधि है और ऐसा पुरुष प्रकृति का दूरस्थ प्रतिनिधि है। यद्यपि तुझमें तेरे ही भीतर के प्रकृति-तत्व की अपेक्षा पुरुष-तत्व अधिक है; पर वह पुरुष-तत्व मेरे भीतर के पुरुष-तत्व की अपेक्षा अधिक नहीं है। मैं तुझसे अधिक नि:संग, अधिक निर्द्वंद्व और अधिक मुक्त हूँ। मैं अपने भीतर की अधिक मात्रावाली प्रकृति को अपने ही भीतरवाले पुरुष-तत्व से अभिभूत नहीं कर सकती। इसलिए मुझे अघोरभैरव की आवश्यकता है। जो कोई भी पुरुष प्रज्ञप्तिवाला मनुष्य मेरे विकास का साधन नहीं हो सकता।”
“और अघोरभैरव को आपकी क्या आवश्यकता है?”
“मुझे मेरी ही अंत:स्थिता प्रकृति रूप में सार्थकता देना। वे गुरु हैं, वे महान हैं, वे मुक्त हैं, वे सिद्ध हैं। उनकी बात अलग है।”
(षष्ठ उच्छ्वास से)
[2]
महामाया ने ही फिर शुरू किया—“तो तू मेरी बात नहीं मानती। हाँ बेटी, नारीहीन तपस्या संसार की भद्दी भूल है। यह धर्म-कर्म का विशाल आयोजन, सैन्य-संगठन और राज्य-व्यवस्थापन सब फेन-बुदबुद की भाँति विलुप्त हो जाएँगे; क्योंकि नारी का इसमें सहयोग नहीं है। यह सारा ठाठ-बाट संसार में केवल अशांति पैदा करेगा।”
भट्टिनी ने चकित की भाँति प्रश्न किया—“तो माता, क्या स्त्रियाँ सेना में भरती होने लगें, या राजगद्दी पाने लगें, तो यह अशांति दूर हो जाएगी?”
महामाया हँसी। बोलीं, “सरला है तू, मैं दूसरी बात कह रही थी। मैं पिंडनारी को कोई महत्वपूर्ण वस्तु नहीं मानती। तुम्हारे इस भट्ट ने भी मुझसे पहली बार इसी प्रकार प्रश्न किया था। मैं नारी-तत्व की बात कह रही हूँ रे! सेना में अगर पिंड-नारियों का दल भरती हो भी जाए तो भी जब तक उसमें नारी-तत्व की प्रधानता नहीं होती, तब तक अशांति बनी रहेगी।”
मेरी आँखें बंद थीं, खोलने का साहस मुझमें नहीं था। परंतु मैं कल्पना के नेत्रों से देख रहा था कि भट्टिनी के विशाल नयन आश्चर्य से आकर्ण विस्फारित हो गए हैं। ज़रा आगे झुककर उन्होंने कहा, “मैं नहीं समझी।”
महामाया ने दीर्घ नि:श्वास लिया। फिर थोड़ा सम्हलकर बोलीं, “परम शिव से दो तत्व एक ही साथ प्रकट हुए थे—शिव और शक्ति। शिव विधिरूप हैं और शक्ति निषेधरूपा। इन्हीं दो तत्वों के प्रस्पंद-विस्पंद से यह संसार आभासित हो रहा है। पिंड में शिव का प्राधान्य ही पुरुष है और शक्ति का प्राधान्य नारी है। तू क्या इस मांस-पिंड को स्त्री या पुरुष समझती है? ना सरले, यह जड़ मांस-पिंड न नारी है, न पुरुष! वह निषेधरूप तत्व ही नारी है। निषेधरूप तत्व, याद रख। जहाँ कहीं अपने-आपको उत्सर्ग करने की, अपने-आपको खपा देने की भावना प्रधान है, वहीं नारी है। जहाँ कहीं दु:ख-सुख की लाख-लाख धाराओं में अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़कर दूसरे को तृप्त करने की भावना प्रबल है, वहीं नारी-तत्व है, या शास्त्रीय भाषा में कहना हो, तो शक्ति-तत्व है। हाँ रे, नारी निषेधरूपा है। वह आनंद-भोग के लिए नहीं आती, आनंद लुटाने के लिए आती है। आज के धर्म-कर्म के आयोजन, सैन्य-संगठन और राज्य-विस्तार विधि-रूप हैं। उनमें अपने-आपको दूसरों के लिए गला देने की भावना नहीं है, इसीलिए वे एक कटाक्ष पर ढह जाते हैं, एक स्मित पर बिक जाते हैं। वे फेन-बुदबुद की भाँति अनित्य हैं। वे सैकतसेतु की भाँति अस्थिर हैं। वे जल-रेखा की भाँति नश्वर हैं। उनमें अपने-आपको दूसरों के लिए मिटा देने की भावना जब तक नहीं आती, तब तक वे ऐसे ही रहेंगे। उन्हें जब तक पूजाहीन दिवस और सेवाहीन रात्रियाँ अनुतप्त नहीं करतीं और जब तक अर्ध्यदान उन्हें कुरेद नहीं जाता, तब तक उनमें निषेधरूपा नारी तत्व का अभाव रहेगा और तब तक वे केवल दूसरों को दु:ख दे सकते हैं।”
(एकादश उच्छ्वास से)
4 comments:
पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. यह नहीं कह सकता कि पूरा समझ आ गया, शायद उसके लिए पूरा उपन्यास पढ़ना पड़ेगा. इतना अवश्य स्पष्ट है कि बात गहरी है और मनन की आवश्यकता है. अगर आप इस दर्शन की व्याख्या करें तो और भी अच्छा होगा. बहुत बहुत धन्यवाद.
बात गहरी है और सत्य । इस सोच से प्रेरित होकर कुछ लिख रही हूँ कल तक अपने ब्लाग पर पोस्ट करूगीं । आशा है पसंद आएगा ।
बहुत सुन्दर। इन्टर्नेट की भीड मे ऐसा लेख पढना अच्छा लगा, सोचने पर मजबूर किया, और लिखते रहिये।
--हिमान्शु शर्मा
बाणभट्ट की आत्मकथा का मूल दर्शन अथवा सार तत्व है : जीवन जीने के किए है . प्रेम जिस रूप में भी आये उसका बाहें फ़ैला कर स्वागत होना चाहिए . कितना भी अभावमय और संघर्षमय क्यों न हो, जीवन है तो उसे बेहतर बनाने की संभावनाएं भी हैं.
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