Saturday, February 25, 2006

समय योग

समय योग मानव आत्माओं के लिए पूर्णता पाने का एक नूतन मार्ग है। इस योग में समय की साधना परमात्मा की शाश्वत अभिव्यक्ति के रूप में की जाती है। जीवन ऊर्जा नैसर्गिक है जिसे प्रकृति ने हमें प्रदान किया है। मानव केवल इसकी दिशा को अनुकूलित कर सकता है। जीवन ऊर्जा को अनुकूल सृजनशील दिशा देने की प्रक्रिया समय योग है। यह प्रकृति-प्रदत्त जीवन ऊर्जा जब समय योग के सहारे किसी कुशल व्यक्ति में सृजनशील दिशा का संधान कर लेती है तो वह सृजनकारी बन जाती है। यदि उस सृजन में सत्य की शक्ति और सबके प्रति प्रेम का आकर्षण मौजूद हो और वह निष्काम भाव से मानव धर्म की सदभावना के साथ सबको न्याय सुनिश्चित कराने की दिशा में प्रेरित हो तो जीवन ऊर्जा का चक्र पूरा हो जाता है और वह आत्मा को मुक्त कर देती है। यदि जीवन ऊर्जा को अनुकूल सृजनकारी दिशा नहीं मिल पाती है तो वह भूख, नींद और वासना की गिरफ्त में फँस कर रह जाती है और आत्मा को आजीवन दु:ख, भय और विफलता से संतप्त करती रहती है। जैसा कि सभी जानते हैं कि समय के तीन आयाम हैं – भूत, वर्तमान और भविष्य। आपकी नियति का निर्धारण इस बात से होता है कि आपकी चेतना की गति किस आयाम की ओर उन्मुख है। समय के प्रवाह के प्रति सतत जागरूक रहते हुए हमेशा वर्तमान क्षण में उपस्थित रहना ही समय योग है। समय और श्रम एक-दूसरे से संबद्ध हैं और यह संबंध श्रम की तीव्रता यानी गति से परिभाषित होता है। यदि श्रम की गति तीव्र है तो समय कम लगता है और यदि गति कम हो तो समय अधिक लगता है। समय और श्रम के बीच तीव्रता का निर्धारण प्रतिभा के आधार पर होता है। प्रत्येक कार्य को पूरा करने के लिए एक समय-सीमा निर्धारित होनी चाहिए और उस समय-सीमा के अनुपालन को ध्यान में रखते हुए कार्य की गति निर्धारित की जानी चाहिए। अतएव, समय योगियों को अपने प्रत्येक कार्य की एक योजना बनानी चाहिए और उस योजना को निर्धारित समय-सीमा के भीतर कार्यान्वित करने की आदत डालनी चाहिए। रात्रि में नियत समय पर सो जाने और सुबह में नियत समय पर जाग जाने का अभ्यास जीवन में समय योग का प्रारंभ है। रात्रि में अर्धरात्रि से पहले सो जाना और सुबह में सूर्योदय से पहले जग जाना बेहतर है। इसे दिनचर्या का नियम बना लेना चाहिए और निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध समय, श्रमशक्ति और बुद्धि का भरपूर उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए। इन तीन संपदाओं की बचत नहीं की जा सकती, इनका सदुपयोग नहीं करने से ये हमेशा के लिए नष्ट हो जाती हैं। हमारी बुद्धि हमेशा समय के खेत में श्रम के बीज बोने में लगी रहनी चाहिए। समय, बुद्धि और श्रम के नियोजन के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं – स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार। हमें अपनी दिनचर्या में कम से कम दो घंटे स्वास्थ्य के लिए, चार घंटे शिक्षा के लिए और आठ घंटे रोजगार के लिए नियोजित करने चाहिए। हमारी बुद्धि हमेशा श्रम और समय के सुनियोजन की दिशा में प्रेरित रहे, इसके लिए हमें अपने जीवन के उद्देश्य का सतत स्मरण रहना चाहिए। यदि हमें अपने जीवन में सुखी रहना है तो हमारे पास ज्ञान, संपत्ति और शक्ति का होना आवश्यक है। इसलिए हमें अपने ज्ञान, संपत्ति और शक्ति के विकास की दिशा में निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए। लेकिन ज्ञान, संपत्ति और शक्ति की सार्थकता तभी है जब इससे सत्य, प्रेम और न्याय की प्रतिष्ठा की जा सके। हमारे जीवन का मूल उद्देश्य स्वतंत्रता, मित्रता और समानता की उपलब्धि करना है ताकि हम मौन, प्रार्थना और शांति के दिव्य परमात्म लोक में शाश्वत प्रवेश पा सकें। समय योग का अनुपालन करने से हमें अपने वास्तविक व्यक्तित्व की पहचान करने में मदद मिलती है। जब हम समय के वर्तमान प्रवाह के साक्षी बन रहे होते हैं उस समय हमारी सुषुम्णा नाड़ी सक्रिय हो जाती है और हमारी आध्यात्मिक ऊर्जा सहज ही उच्चतर चक्रों की ओर बढ़ने लगती है। जो समय के वर्तमान प्रवाह के प्रति हमेशा सजग है उसी को संतुलित व्यक्ति कहा जा सकता है। जिसकी दिनचर्या में सहजता, संतुलन और साक्षीभाव सदैव कायम है, केवल वही सही पथ पर है। अपने अतीत से सबक लीजिए, भविष्य के लिए अपने को तैयार कीजिए, लेकिन वर्तमान में सक्रिय रहिए। समय का पालन कीजिए, लेकिन सहज बने रहिए। उसके लिए तनाव मोल नहीं लीजिए। यदि सही समय पर आप काम आरंभ करेंगे और श्रम की गति को संतुलित बनाए रखेंगे तो काम सही समय पर समाप्त हो जाएगा। समय योग के साधकों के आराध्य हैं – सूर्य, धरती और चन्द्रमा। मानव जीवन के मूल आधार ये तीन ही हैं और इन्हीं से मानव का जीवन सर्वाधिक प्रभावित और प्रेरित होता है। इसलिए किन्हीं कल्पित देवी-देवताओं की आराधना करने से बेहतर है इन प्रत्यक्ष, जीवन्त और साकार तत्वों की आराधना करना।

Tuesday, February 21, 2006

कब मिलेगा आवास का मौलिक अधिकार

“सबै भूमि गोपाल की”-- क्या यह उक्ति आज के संदर्भ में भी सार्थक है? पूरी धरती की बात फिलहाल हम नहीं कर सकते। क्या भारत के समस्त भू-क्षेत्र पर सभी नागरिकों का समान अधिकार है? क्या भारत के सभी नागरिकों को आवश्यकता के अनुरूप आवास की समुचित व्यवस्था का मौलिक अधिकार प्राप्त है? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (ङ) के तहत सभी नागरिकों को “भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का” मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है। इसी तरह, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण संबंधी मौलिक अधिकार की व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय ने इसके दायरे में गरिमापूर्ण जीवन, निजी एकान्त जीवन, स्वच्छ वातावरण और जीविका के अधिकार को भी शामिल किया है। कहना न होगा कि इन सब बातों का आवास की समुचित व्यवस्था के साथ गहराई से संबंध है। अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार करते हुए सरकार ने संसद द्वारा अनुमोदित राष्ट्रीय आवास नीति, 1998 के अनुसार देश में प्रति वर्ष 20 लाख नई आवासीय इकाइयों के निर्माण को नेशनल एजेंडा फॉर गवर्नेंस में प्राथमिक लक्ष्य के तौर पर शामिल किया है। लेकिन वास्तविकता यह है कि आवास की बुनियादी आवश्यकता को पूरा करने के मामले में अपनी जिम्मेदारी निभा पाने में वह अभी तक विफल ही रही है और उसने आवास के क्षेत्र को पूरी तरह बाजार के हाथों में छोड़ दिया है। यहाँ तक कि सरकार खुद भी इस मामले में बाजार से नियंत्रित हो रही है और मुनाफाखोरी पर उतर आई है। जो जमीन सरकार के नियंत्रण में है उसे वह नीलामी के जरिए बाजार भाव पर बेचने लगी है और जो जमीन लोगों के निजी स्वामित्व में है उसके बाजार भाव को नियंत्रित करने के मामले में अपनी भूमिका से वह पीछे हट रही है। यही कारण है कि भारत में, खासकर महानगरों और शहरी क्षेत्र में रीयल इस्टेट का पूरा कारोबार भ्रष्टाचार की भयंकर चपेट में है। यह सारा कारोबार भू-माफिया, बिल्डर, प्रोपर्टी डीलर, नगर निगम, भूमि विकास प्राधिकरण, सोसायटी रजिस्ट्रार, काला धन रखने वाले व्यवसायी, अपराधी, नेता और नौकरशाह तथा पुलिस और प्रशासन में शामिल लोग आपसी साँठ-गाँठ करके चला रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के विभिन्न भूमि विकास प्राधिकरणों द्वारा प्लॉट या फ्लैट आवंटन के ड्रॉ का शायद ही कोई ऐसा मामला रहा हो, जिसमें किसी न किसी स्तर पर भ्रष्टाचार न हुआ हो। सोसायटी रजिस्ट्रार और नगर निगम के कार्यालय भी भ्रष्टाचार के बदनाम अड्डे बन चुके हैं। रीयल इस्टेट की कीमतें बिल्कुल अवास्तविक हो चुकी हैं और अपना खुद का घर देश के आम मध्य वर्ग के लिए सपना बन कर रह गया है। हालत यह है कि दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों में अपनी वैध कमाई से औसत आमदनी वाला कोई व्यक्ति अपना घर नहीं खरीद सकता और आवास ऋण लेकर कोई अपना घर खरीदने का दुस्साहस करे तो वह जीवन भर ऋण के दुश्चक्र में फँस जाने के लिए अभिशप्त हो जाएगा। प्रोपर्टी का बाजार मूल्य पिछले पाँच वर्षों के दौरान उसके वास्तविक पंजीकृत मूल्य से तीन-चार गुना अधिक हो गया है, जबकि इस दौरान लोगों की आमदनी में नाममात्र की बढ़ोतरी ही हो पाई है। मध्य वर्ग के किसी औसत व्यक्ति की आमदनी एक वर्ष में कुछेक सौ रुपये ही बढ़ पाती है, जबकि प्रोपर्टी की कीमतें हर वर्ष कई लाख रुपये बढ़ रही हैं। हक़ीक़त यह है कि नागरिकों की वैध आमदनी अर्थात् उनकी वास्तविक क्रय क्षमता और प्रोपर्टी के बाजार-मूल्य के बीच कोई संगति ही नहीं रह गई है। हर कोई जानता है कि किसी प्रोपर्टी के पंजीकृत मूल्य से अधिक भुगतान की गई शेष सारी राशि काले धन के खाते में जाती है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब देश के करोड़ों लोग आवास की समस्या से जूझ रहे हों तो रीयल इस्टेट के बाजार पर काला धन रखने वाले मुट्ठी भर लोगों को कब्जा करके अंधाधुंध मुनाफा बटोरने और आम लोगों के हक़ पर कब्जा करने की छूट कैसे दी जा रही है ? हैरानी की बात यह है कि प्याज और रसोई गैस जैसी छोटी-छोटी चीजों की कीमतें बढ़ने पर तो हंगामा खड़ा हो जाता है और सरकारें डगमगाने लगती हैं, लेकिन रीयल इस्टेट के बाजार में आए इस अनियंत्रित उछाल को लेकर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं हो रही है। वह प्रोपर्टी डीलर जिसके पास अपने पेशे का कोई लाइसेंस नहीं होता, जो किसी भी राजकीय एजेंसी में पंजीकृत नहीं है, जो सरकार को कोई टैक्स नहीं चुकाता, जो प्रोपर्टी को खरीदने-बेचने में महज एक मध्यस्थ की भूमिका निभाता है, वह बाजार में प्रोपर्टी की कीमतें अपनी मनमर्जी से तय करता है। हालत यह हो गई है कि रीयल इस्टेट का बाजार शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक से भी अधिक संवेदनशील बन गया है और वह बहुत-सी ऐसी ख़बरों से प्रभावित होने लगा है, जिनसे प्रोपर्टी की कीमतों का कोई सीधा संबंध नहीं है। यदि दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मेट्रो का जाल बिछाया जा रहा है या पाँच वर्ष के बाद दिल्ली में एशियाई खेल आयोजित होने वाले हैं तो इससे किसी आवासीय प्रोपर्टी की कीमत क्यों बढ़नी चाहिए? यदि मुम्बई में किसी बड़े औद्योगिक घराने ने नीलामी में काफी ऊँची बोली लगाकर कोई प्रोपर्टी खरीद ली तो इससे पूरे मुम्बई या उसके आसपास के इलाकों में प्रोपर्टी की कीमतें क्यों बढ़नी चाहिए ? दिल्ली उच्च न्यायालय ने यदि दिल्ली में अवैध निर्माणों के विरुद्ध तोड़-फोड़ की कार्रवाई शुरू करने का आदेश दिया तो इससे वैध निर्माण वाली प्रोपर्टी की कीमतें क्यों बढ़ जानी चाहिए? मगर ऐसा हो रहा है और पिछले एक महीने के भीतर दिल्ली की नियमित कॉलोनियों के वैध निर्माण वाले मकानों की कीमतें 30 फीसदी तक बढ़ गई हैं। हैरानी की बात यह है कि ऐसी हर बात पर प्रोपर्टी की कीमतें बढ़ जाना एक दस्तूर-सा बन गया है और उनके औचित्य पर प्रश्न तक उठाने वाला कोई नहीं है। सवाल यह है कि आवास के क्षेत्र में बाजार के नियमों यानी मांग और पूर्ति के संबंध के आधार पर कीमतें निर्धारित होना कितना उचित है ? जिन लोगों को रहने के लिए आवास की वास्तव में जरूरत है उन्हें आवास उपलब्ध कराने की बजाय सरकार ऐसे लोगों को क्यों प्रोत्साहन दे रही है जो अपने काले धन का निवेश रीयल इस्टेट में करके बिना किसी मेहनत के जल्दी कई गुना मुनाफा कमाने के खेल में शामिल हैं। हालत यह है कि जहाँ ईमानदारी और मेहनत से कमाई करने वाले करोड़ों लोगों के पास रहने को अपना छोटा-सा घर तक मयस्सर नहीं है, वहीं अवैध तरीकों से कमाई करने वाले कुछ लोग कई-कई मकानों और जमीन के प्लॉटों पर क़ाबिज़ हो चुके हैं और अंधाधुंध मुनाफ़े के इस बाजार पर छाए हुए हैं। इस तरह देश में आर्थिक विषमता की खाई बढ़ती जा रही है और देश के किसी भी भाग में निवास कर सकने, आजीविका प्राप्त करने, गरिमापूर्ण जिंदगी गुजर-बसर करने, निजता की सुरक्षा करने, स्वच्छ वातावरण में रहने संबंधी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का घोर उल्लंघन हो रहा है। जो लोग अभी तक अपना मकान नहीं खरीद पाए हैं और जिनके पास औसत वैध आमदनी के अलावा काले धन का कोई अन्य स्रोत नहीं है, रीयल इस्टेट के बाजार में उनकी गाड़ी अब छूट चुकी है। भारतीय संविधान में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता का जो स्पष्ट उल्लेख किया गया है वह कम से कम आवास के क्षेत्र में तो कतई लागू नहीं होता। जिसने अपने कैरियर की शुरुआत अपेक्षाकृत देर से की और जो रीयल प्रोपर्टी बनाने के मामले में पहल किसी दूसरे व्यक्ति की तुलना में देर से कर पाया, वह हमेशा के लिए दूसरों से पीछे रह जाएगा। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में वर्ष 2000 में जिस एम.आई.जी. फ्लैट की कीमत 7 लाख रुपये थी, पिछले पाँच वर्षों के दौरान उसकी कीमत बढ़कर अब 16 से 22 लाख रुपये तक हो चुकी है। यदि वर्ष 2000 में किसी व्यक्ति ने 5 लाख रुपये ऋण लेकर और 2 लाख रुपया अपनी बचत में से लगाकर अपना घर खरीद लिया तो 5000 रुपये की मासिक किश्त 20 वर्ष तक चुकाने अर्थात् अपने ही मकान का किराया भरने के बाद वह उस फ्लैट का स्वामी बन सकता है और यह उसके लिए बिल्कुल सहज भी रहेगा, क्योंकि एक तो उसकी मासिक किश्त उसके द्वारा पहले चुकाए जा रहे मकान किराये के संगत है और दूसरी बात यह कि उसे ब्याज की निम्न दरों का लाभ भी मिल गया। लेकिन यदि किसी व्यक्ति ने उस समय मकान नहीं लिया और इस दौरान उसकी वार्षिक आय 1.50 लाख रुपये से बढ़कर 2 लाख रुपये हो चुकी हो तब भी उसे उसी फ्लैट को खरीदने के लिए अब कम से कम 10 लाख रुपये अधिक चुकाने होंगे। मान लीजिए इस समय उसके पास अपनी बचत के 5-6 लाख रुपये हों और शेष राशि वह बैंक से ऋण लेकर वही फ्लैट खरीदना चाहे तो उसे 20 वर्ष तक 12000 रुपये मासिक किश्त चुकाने होंगे, जो कि उसके द्वारा चुकाए जा रहे मकान के किराये के दोगुने से भी अधिक होगा। उसे आवास ऋण की बढ़ी हुई ब्याज दरों का बोझ भी वहन करना पड़ेगा। यदि उसके पास आय का कोई अतिरिक्त साधन नहीं हो तो अपना मकान खरीदने का उसका यह दुस्साहस उसके परिवार के जीवन-स्तर पर गंभीर प्रतिकूल असर डालेगा। यदि वह अपने जीवन-स्तर को बनाए रखने की स्वाभाविक चेष्टा करे तो उसे या तो अपने मकान के सपने देखना छोड़ देना पड़ेगा या फिर अवैध स्रोतों से आय का जुगाड़ करना पड़ेगा, क्योंकि किसी व्यक्ति के जीवन भर की कमाई का सबसे बड़ा निवेश मकान में ही होता है और यह निवेश उसकी तमाम अन्य आवश्यकताओं को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। नागरिकों के लिए आवास का समुचित प्रबंध करने का दायित्व जिन राजनेताओं और नौकरशाहों के हाथों में है उन्हें अति विशिष्ट इलाकों में लगभग मुफ्त की आवास सुविधा मिली हुई है, जिनका खर्च वास्तव में आम जनता को तरह-तरह के कर चुका करके वहन करना पड़ता है। लेकिन आम जनता जब प्रोपर्टी डीलर, बिल्डर, भू-माफिया, भ्रष्ट अधिकारी और राजनेता के धोखे का शिकार बनने के बावजूद किसी तरह अपने घर का प्रबंध करने की कोशिश करती है तो उनके आशियाने पर बुलडोजर चलवाने से पहले अदालतें भी उनके हितों की सुरक्षा करना जरूरी नहीं समझतीं। क्या भारतीय न्याय-व्यवस्था और राजव्यवस्था नागरिकों के आवास संबंधी अधिकारों की सुरक्षा कर सकने में सक्षम है? समय आ गया है जब संसद को मौलिक अधिकारों की सूची में आवास के अधिकार को जोड़ने के लिए संविधान संशोधन के जरिए स्पष्ट संवैधानिक उपबंध करना चाहिए। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर परिवार को आवश्यकता के अनुरूप एक आवास अवश्य उपलब्ध हो और किसी भी व्यक्ति या परिवार के पास एक से अधिक आवास का कब्जा नहीं हो। जिस किसी के पास उसके रहने की आवश्यकता से अधिक मकान या जमीन हो, उसे सरकार द्वारा मुआवजा देते हुए जब्त कर लिया जाना चाहिए। रीयल इस्टेट के कारोबार के विनियमन के लिए एक सशक्त विनियामक आयोग का गठन किया जाना चाहिए, जो इस कारोबार से जुड़े सभी पक्षों की गतिविधियों पर निगरानी रखे और नागरिकों के हितों की सुरक्षा करे। रीयल इस्टेट के कारोबार में से भ्रष्टाचार का समूल उन्मूलन करने के लिए विशेष अभियान चलाया जाना चाहिए। प्रोपर्टी डीलरों का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए और उनके द्वारा की गई हर खरीद-बिक्री तथा उनकी आय एवं संपत्ति पर राजस्व प्राधिकारियों की कड़ी निगरानी होनी चाहिए। लेकिन सबसे अधिक आवश्यक यह है कि हर प्रोपर्टी का अधिकतम मूल्य निर्धारित किया जाना चाहिए और उसकी जानकारी सर्वसुलभ कराई जानी चाहिए। इस मामले में न्यायालय से भी विशेष मदद मिल सकने की आशा की जा सकती है। इसके लिए जनहित याचिका के माध्यम से नागरिकों के इन मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय से गुहार लगाने की पहल करनी होगी।
राष्ट्रीय सहारा ने इस आलेख को संपादित रूप में 24 फरवरी, 2006 को अपने "प्रॉपर्टी" पृष्ठ पर प्रकाशित किया है।

Monday, February 20, 2006

भारत में पसारे बर्ड फ़्लू ने पैर

महाराष्ट्र के नंदुरबार और धुले ज़िलों में स्थित मुर्ग़ीपालन फार्मों में पिछले दस दिनों से बड़ी संख्या में मुर्गियों के मरने का सिलसिला चल रहा था। मुर्गीपालन से जुड़े स्थानीय लोग इसे ‘रानीखेत’ नामक एक मौसमी बीमारी मानकर चल रहे थे, लेकिन जब तक प्रशासन को संकट की गंभीरता का पता चल पाता, देर हो चुकी थी और लाखों मुर्गियाँ इसकी चपेट में आ चुकी थीं। 18 फरवरी को भोपाल स्थित पशु रोग प्रयोगशाला में इन मुर्गियों के एवियन इंफ़्लुएंज़ा-ए (एच5एन1) नामक बर्ड फ़्लू विषाणु से ग्रसित होने की पुष्टि की खबर आने के बाद केन्द्र सरकार और संबंधित राज्य सरकारों के स्वास्थ्य प्रशासन तथा आपदा प्रबंधन से जुड़े अधिकारी हरकत में आए और भारत में बर्ड फ़्लू महामारी की रोकथाम के लिए जरूरी उपाय युद्ध स्तर पर शुरू कर दिए गए। इन उपायों के अंतर्गत पशु चिकित्सकों की निगरानी में प्रभावित इलाकों में नौ लाख से अधिक मुर्गियों को तुरंत मार दिया जाना, लोगों को बर्ड फ़्लू के संक्रमण से बचाने के लिए आसपास के तीन किलोमीटर के दायरे की घेराबंदी किया जाना और दस किलोमीटर के दायरे में सभी मुर्ग़े-मुर्गियों को दवाई पिलाया जाना, मुर्गीपालन से जुड़े लोगों को संक्रमण से बचाने के लिए टीका लगाया जाना और मुर्गी उत्पादों के व्यापार पर निगरानी रखा जाना, आदि शामिल हैं। भारत में बर्ड फ़्लू विषाणु की मौजूदगी की पहली बार हुई इस पुष्टि के बाद हमारा देश भी बर्ड फ़्लू से अब तक प्रभावित हो चुके लगभग 30 देशों की सूची में जुड़ गया है। हालाँकि जनवरी के अंतिम सप्ताह में भी असम के धुबरी जिले के लगभग बीस गाँवों में हजारों की तादाद में अप्रत्याशित रूप से मुर्गियों के मरने की खबरें आई थी, लेकिन उस वक्त बर्ड फ्लू विषाणु के परीक्षण के संबंध में शायद समुचित तत्परता नहीं बरती गई। जबकि चीन और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में बर्ड फ्लू के फैलने के बाद उनसे सटे भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में बर्ड फ़्लू फैलने की आशंका प्रबल हो गई थी और जनवरी, 2004 में पाकिस्तान में बर्ड फ्लू फैलने की खबर आने के बाद 30 जनवरी, 2004 को भारत सरकार ने विशेषकर पाकिस्तान से सटे राज्यों पंजाब, राजस्थान और गुजरात में रेड एलर्ट भी घोषित कर दिया था।
हालाँकि भारत में किसी व्यक्ति के बर्ड फ़्लू विषाणु से संक्रमित होने की पुष्टि अभी तक नहीं हो पाई है, लेकिन महाराष्ट्र और गुजरात राज्य में मुर्गीपालन से जुड़े कुछ लोगों में बर्ड फ़्लू से मिलते-जुलते लक्षणों की शिकायत मिलने से इस बात की आशंका बढ़ गई है कि भारत में भी इस विषाणु का संक्रमण कहीं पक्षियों से मनुष्यों में न फैल जाए, जो कि एक अत्यंत खतरनाक स्थिति होगी। जनवरी, 2004 के बाद कंबोडिया, चीन, इंडोनेशिया, थाइलैंड, वियतनाम, तुर्की और ईराक सहित कई देशों में मनुष्यों में बर्ड फ्लू विषाणु के संक्रमण की पुष्टि हो चुकी है और दुनिया भर में अभी तक 80 से अधिक व्यक्ति बर्ड फ्लू की चपेट में आने के बाद मौत का शिकार हो चुके हैं। पहले यह समझा जाता था कि बर्ड फ़्लू केवल पक्षियों में ही होता है, लेकिन पहली बार 1997 में हांगकांग में एक व्यक्ति के बर्ड फ़्लू से संक्रमित होने की पुष्टि के बाद इस रोग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष गंभीरता से लिया जाने लगा।
हालाँकि अभी तक बर्ड फ्लू विषाणु का संक्रमण एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में होने की कोई जानकारी नहीं है, लेकिन वैज्ञानिकों को आशंका है कि बर्ड फ़्लू के विषाणु का मानव फ़्लू के विषाणु से उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) हो जाने पर एक नए प्रकार का विषाणु उत्पन्न हो सकता है जिससे यह मानव से मानव में संक्रमण के जरिए फैलने वाली महामारी का स्वरूप ले सकता है। इस बीमारी के महामारी का रूप लेने पर बड़े पैमाने पर लोगों के स्वास्थ्य की हानि होने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर भी गंभीर संकट आ जाएगा। विश्व बैंक का आकलन है कि अगर बर्ड फ़्लू महामारी के रूप में फैला, तो हर साल विश्व अर्थव्यवस्था को 800 अरब डॉलर का नुक़सान हो सकता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बर्ड फ़्लू की चपेट में आए देशों को चेतावनी दी है कि वे इस बीमारी से जुड़ी ख़बरों को ज़ाहिर करने में ईमानदारी बरतें और संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी उन देशों को आगाह किया गया है जो अपने यहाँ बर्ड फ़्लू की मौजूदगी को छिपा रहे हैं। पिछले महीने 17-18 जनवरी को बीजिंग में संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व बैंक द्वारा संयुक्त रूप से बर्ड फ़्लू से निपटने के लिए एक कोष जुटाने के उद्देश्य से दाता देशों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें आशा से भी अधिक 1.90 अरब डॉलर राशि जुटाई गई, जिसका इस्तेमाल विशेषकर विकासशील देशों में स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं पर ख़र्च करने में किया जाएगा, ताकि बर्ड फ़्लू के ख़तरनाक एच5एन1 वायरस मनुष्यों में न फैल सकें। दुनिया के विकसित देश खासकर यूरोपीय संघ के देश इस मामले में पहले ही सचेष्ट हो चुके हैं और जरूरी एहतियाती उपाय कर चुके हैं, जिसके तहत बर्ड फ्लू से प्रभावित देशों से पक्षियों (पोल्ट्री) के आयात पर पाबंदी लगा दी गई है।
बर्ड फ्लू को फैलने से रोकने के लिए अभी तक सबसे कारगर उपाय यही माना जाता है कि संक्रमण की आशंका वाले इलाके के पक्षियों को मार कर दफ़ना दिया जाए या जला दिया जाए, लेकिन पक्षियों को मारने के दौरान इस अभियान में शामिल लोगों और संक्रमित पक्षियों के संपर्क में रह रहे लोगों के भी संक्रमित होने की आशंका बनी रहती है, जिससे बचने के लिए विशेष सावधानी और जरूरी उपाय किए जाने जरूरी हैं। अभी तक बर्ड फ्लू विषाणु से बचने के लिए किसी प्रतिरोधी टीके की खोज नहीं हो पाई है, हालाँकि टैमीफ्लू नामक दवा इससे संक्रमित हो चुके व्यक्तियों के उपचार में काफी हद तक कारगर मानी जाती है। बर्ड फ्लू के संक्रमण से बचने के लिए पक्षियों के प्रवास पर निगरानी रखने और खासकर जंगली पक्षियों और घरेलू पक्षियों के बीच संपर्क पर भी विशेष निगरानी रखे जाने की आवश्यकता है। भारत के तमाम पड़ोसी देशों में बर्ड फ्लू पहले ही गंभीर रूप ले चुका है, इसलिए यह वक्त की नजाकत है कि भारत बर्ड फ्लू की समस्या से निपटने में कोई चूक न करे और इस रोग को अपने पैर देश के अंदर पसारने नहीं दे।
Rashtriya Sahara has published this article on its Editorial Page on 21 Feb, 2006.

Friday, February 17, 2006

भारत में ग्रामीण पत्रकारिता का वर्तमान स्वरूप

गाँवों के देश भारत में, जहाँ लगभग 80% आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है, देश की बहुसंख्यक आम जनता को खुशहाल और शक्तिसंपन्न बनाने में पत्रकारिता की निर्णायक भूमिका हो सकती है। लेकिन विडंबना की बात यह है कि अभी तक पत्रकारिता का मुख्य फोकस सत्ता की उठापठक वाली राजनीति और कारोबार जगत की ऐसी हलचलों की ओर रहा है, जिसका आम जनता के जीवन-स्तर में बेहतरी लाने से कोई वास्तविक सरोकार नहीं होता। पत्रकारिता अभी तक मुख्य रूप से महानगरों और सत्ता के गलियारों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। ग्रामीण क्षेत्रों की ख़बरें समाचार माध्यमों में तभी स्थान पाती हैं जब किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा या व्यापक हिंसा के कारण बहुत से लोगों की जानें चली जाती हैं। ऐसे में कुछ दिनों के लिए राष्ट्रीय कहे जाने वाले समाचार पत्रों और मीडिया जगत की मानो नींद खुलती है और उन्हें ग्रामीण जनता की सुध आती जान पड़ती है। खासकर बड़े राजनेताओं के दौरों की कवरेज के दौरान ही ग्रामीण क्षेत्रों की ख़बरों को प्रमुखता से स्थान मिल पाता है। फिर मामला पहले की तरह ठंडा पड़ जाता है और किसी को यह सुनिश्चित करने की जरूरत नहीं होती कि ग्रामीण जनता की समस्याओं को स्थायी रूप से दूर करने और उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए किए गए वायदों को कब, कैसे और कौन पूरा करेगा।

सूचना में शक्ति होती हैं। हाल ही में सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के जरिए नागरिकों को सूचना के अधिकार से लैस करके उन्हें शक्ति-संपन्न बनाने का प्रयास किया गया है। लेकिन जनता इस अधिकार का व्यापक और वास्तविक लाभ पत्रकारिता के माध्यम से ही उठा सकती है, क्योंकि आम जनता अपने दैनिक जीवन के संघर्षों और रोजी-रोटी का जुगाड़ करने में ही इस क़दर उलझी रहती है कि उसे संविधान और कानून द्वारा प्रदत्त अधिकारों का लाभ उठा सकने के उपायों को अमल में लाने की चेष्टा करने का अवसर ही नहीं मिल पाता।

ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षा, गरीबी और परिवहन व्यवस्था की बदहाली की वजह से समाचार पत्र-पत्रिकाओं का लाभ सुदूर गाँव-देहात की जनता नहीं उठा पाती। बिजली और केबल कनेक्शन के अभाव में टेलीविज़न भी ग्रामीण क्षेत्रों तक नहीं पहुँच पाता। ऐसे में रेडियो ही एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो सुगमता से सुदूर गाँवों-देहातों में रहने वाले जन-जन तक बिना किसी बाधा के पहुँचता है। रेडियो आम जनता का माध्यम है और इसकी पहुँच हर जगह है, इसलिए ग्रामीण पत्रकारिता के ध्वजवाहक की भूमिका रेडियो को ही निभानी पड़ेगी। रेडियो के माध्यम से ग्रामीण पत्रकारिता को नई बुलंदियों तक पहुँचाया जा सकता है और पत्रकारिता के क्षेत्र में नए-नए आयाम खोले जा सकते हैं। इसके लिए रेडियो को अपना मिशन महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज्य के स्वप्न को साकार करने को बनाना पड़ेगा और उसको ध्यान में रखते हुए अपने कार्यक्रमों के स्वरूप और सामग्री में अनुकूल परिवर्तन करने होंगे। निश्चित रूप से इस अभियान में रेडियो की भूमिका केवल एक उत्प्रेरक की ही होगी। रेडियो एवं अन्य जनसंचार माध्यम सूचना, ज्ञान और मनोरंजन के माध्यम से जनचेतना को जगाने और सक्रिय करने का ही काम कर सकते हैं। लेकिन वास्तविक सक्रियता तो ग्राम पंचायतों और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले पढ़े-लिखे नौजवानों और विद्यार्थियों को दिखानी होगी। इसके लिए रेडियो को अपने कार्यक्रमों में दोतरफा संवाद को अधिक से अधिक बढ़ाना होगा ताकि ग्रामीण इलाक़ों की जनता पत्रों और टेलीफोन के माध्यम से अपनी बात, अपनी समस्या, अपने सुझाव और अपनी शिकायतें विशेषज्ञों तथा सरकार एवं जन-प्रतिनिधियों तक पहुँचा सके। खासकर खेती-बाड़ी, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार से जुड़े बहुत-से सवाल, बहुत सारी परेशानियाँ ग्रामीण लोगों के पास होती हैं, जिनका संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञ रेडियो के माध्यम से आसानी से समाधान कर सकते हैं। रेडियो को “इंटरेक्टिव” बनाकर ग्रामीण पत्रकारिता के क्षेत्र में वे मुकाम हासिल किए जा सकते हैं जिसे दिल्ली और मुम्बई से संचालित होने वाले टी.वी. चैनल और राजधानियों तथा महानगरों से निकलने वाले मुख्यधारा के अख़बार और नामी समाचार पत्रिकाएँ अभी तक हासिल नहीं कर पायी हैं।

टी.वी. चैनलों और बड़े अख़बारों की सीमा यह है कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में अपने संवाददाताओं और छायाकारों को स्थायी रूप से तैनात नहीं कर पाते। कैरियर की दृष्टि से कोई सुप्रशिक्षित पत्रकार ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाने के लिए ग्रामीण इलाक़ों में लंबे समय तक कार्य करने के लिए तैयार नहीं होता। कुल मिलाकर, ग्रामीण पत्रकारिता की जो भी झलक विभिन्न समाचार माध्यमों में आज मिल पाती है, उसका श्रेय अधिकांशत: जिला मुख्यालयों में रहकर अंशकालिक रूप से काम करने वाले अप्रशिक्षित पत्रकारों को जाता है, जिन्हें अपनी मेहनत के बदले में समुचित पारिश्रमिक तक नहीं मिल पाता। इसलिए आवश्यक यह है कि नई ऊर्जा से लैस प्रतिभावान युवा पत्रकार अच्छे संसाधनों से प्रशिक्षण हासिल करने के बाद ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाने के लिए उत्साह से आगे आएँ। इस क्षेत्र में काम करने और कैरियर बनाने की दृष्टि से भी अपार संभावनाएँ हैं। यह उनका नैतिक दायित्व भी बनता हैं।

आखिर देश की 80 प्रतिशत जनता जिनके बलबूते पर हमारे यहाँ सरकारें बनती हैं, जिनके नाम पर सारी राजनीति की जाती हैं, जो देश की अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान करते हैं, उन्हें पत्रकारिता के मुख्य फोकस में लाया ही जाना चाहिए। मीडिया को नेताओं, अभिनेताओं और बड़े खिलाड़ियों के पीछे भागने की बजाय उस आम जनता की तरफ रुख़ करना चाहिए, जो गाँवों में रहती है, जिनके दम पर यह देश और उसकी सारी व्यवस्था चलती है।

पत्रकारिता जनता और सरकार के बीच, समस्या और समाधान के बीच, व्यक्ति और समाज के बीच, गाँव और शहर की बीच, देश और दुनिया के बीच, उपभोक्ता और बाजार के बीच सेतु का काम करती है। यदि यह अपनी भूमिका सही मायने में निभाए तो हमारे देश की तस्वीर वास्तव में बदल सकती है।

सरकार जनता के हितों के लिए तमाम कार्यक्रम बनाती है; नीतियाँ तैयार करती है; कानून बनाती है; योजनाएँ शुरू करती है; सड़क, बिजली, स्कूल, अस्पताल, सामुदायिक भवन आदि जैसी मूलभूत अवसंरचनाओं के विकास के लिए फंड उपलब्ध कराती है, लेकिन उनका लाभ कैसे उठाना है, उसकी जानकारी ग्रामीण जनता को नहीं होती। इसलिए प्रशासन को लापरवाही और भ्रष्टाचार में लिप्त होने का मौका मिल जाता है। जन-प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद जनता के प्रति बेखबर हो जाते हैं और अपने किए हुए वायदे जान-बूझकर भूल जाते हैं।

ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई-नई ख़ोजें होती रहती हैं; शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में नए-नए द्वार खुलते रहते हैं; स्वास्थ्य, कृषि और ग्रामीण उद्योग के क्षेत्र की समस्याओं का समाधान निकलता है, जीवन में प्रगति करने की नई संभावनाओं का पता चलता है। इन नई जानकारियों को ग्रामीण जनता तक पहुँचाने के लिए तथा लगातार काम करने के लिए उन पर दबाव बढ़ाने, प्रशासन के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार को उजागर करने, जनता की सामूहिक चेतना को जगाने, उन्हें उनके अधिकारों और कर्त्तव्यों का बोध कराने के लिए पत्रकारिता को ही मुस्तैदी और निर्भीकता से आगे आना होगा। किसी प्राकृतिक आपदा की आशंका के प्रति समय रहते जनता को सावधान करने, उन्हें बचाव के उपायों की जानकारी देने और आपदा एवं महामारी से निपटने के लिए आवश्यक सूचना और जानकारी पहुँचाने में जनसंचार माध्यमों, खासकर रेडियो की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।

पत्रकारिता आम तौर पर नकारात्मक विधा मानी जाती है, जिसकी नज़र हमेशा नकारात्मक पहलुओं पर रहती है, लेकिन ग्रामीण पत्रकारिता सकारात्मक और स्वस्थ पत्रकारिता का क्षेत्र है। भूमण्डलीकरण और सूचना-क्रांति ने जहाँ पूरे विश्व को एक गाँव के रूप में तबदील कर दिया है, वहीं ग्रामीण पत्रकारिता गाँवों को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित कर सकती है। गाँवों में हमारी प्राचीन संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान की विरासत, कला और शिल्प की निपुण कारीगरी आज भी जीवित है, उसे ग्रामीण पत्रकारिता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर ला सकती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ यदि मीडिया के माध्यम से धीरे-धीरे ग्रामीण उपभोक्ताओं में अपनी पैठ जमाने का प्रयास कर रही हैं तो ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से गाँवों की हस्तकला के लिए बाजार और रोजगार भी जुटाया जा सकता है। ग्रामीण किसानों, घरेलू महिलाओं और छात्रों के लिए बहुत-से उपयोगी कार्यक्रम भी शुरू किए जा सकते हैं जो उनकी शिक्षा और रोजगार को आगे बढ़ाने का माध्यम बन सकते हैं।

इसके लिए ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी सृजनकारी भूमिका को पहचानने की जरूरत है। अपनी अनन्त संभावनाओं का विकास करने एवं नए-नए आयामों को खोलने के लिए ग्रामीण पत्रकारिता को इस समय प्रयोगों और चुनौतियों के दौर से गुजरना होगा।

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