Tuesday, May 30, 2006

आरक्षण : विरोध के बावजूद

तमाम विरोध प्रदर्शनों और मीडिया द्वारा उसे लगभग एकतरफा एवं पक्षपातपूर्ण ढंग से तूल दिए जाने के बावजूद केन्द्र सरकार ने अगले शैक्षिक सत्र से पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण के प्रावधान को लागू करने का निर्णय कर ही लिया। संवैधानिक प्रतिबद्धताओं को पूरा करने और न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सत्ताधारी गठबंधन के बीच आम सहमति को अमल में लाने के लिए सरकार के पास इसके सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं था। बेहतर होता कि आरक्षण के प्रावधान को वास्तविक रूप से लागू किए जाने से पहले अर्जुन सिंह इसके संबंध में कोई बयान देने से बचते। यह स्वाभाविक है कि आरक्षण के प्रावधान के लागू होने से जिन लोगों के हितों को नुकसान पहुँचेगा वे इसका विरोध करेंगे। लोकतंत्र में उन्हें भी अपनी बात शांतिपूर्वक व्यक्त करने का अधिकार है। लेकिन आरक्षण के विरोध और फिर उसकी प्रतिक्रिया में आरक्षण के समर्थन ने कहीं-कहीं उग्र स्वरूप भी अख्तियार कर लिया और दोनों पक्ष के छात्र-छात्राओं को पुलिस के डंडों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। इस मुद्दे पर हमारी युवा पीढ़ी के मानस में हिंसा और तनाव का माहौल पैदा होना निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है आरक्षण का विरोध करने वालों द्वारा सामाजिक वास्तविकता को समझने की कोशिश नहीं करना और संविधान की मर्यादा का सम्मान नहीं करना। सरकार के निर्णय के विरोध में आरक्षण-विरोधियों द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री महोदय की अपीलों को अनसुना करते हुए अपने आंदोलन को पहले से भी अधिक उग्रता से जारी रखने के फैसले को देखते हुए भारतीय जनमानस में उत्तेजना और अशांति फैलने की आशंका बढ़ गई है। मेरी नजर में इसके लिए सबसे अधिक दोषी है प्रेस और मीडिया, जिसने अपना फ़र्ज़ ईमानदारी और निष्पक्षता से अंजाम नहीं दिया। उसे इस मुद्दे पर दोनों विपरीत पक्षों के बीच सार्थक बौद्धिक बहस का माहौल बनाने की कोशिश करनी चाहिए थी ताकि दोनों पक्ष एक-दूसरे के विचारों, तर्कों और भावनाओं को समझ सकें और उनके बीच परस्पर सहमति एवं सदभाव का माहौल विकसित हो सके। लेकिन समाचार पत्रों और मीडिया संस्थानों में काम करने वाले अधिकांश पत्रकारों ने इस मामले में अपने जातीय दुराग्रह से प्रेरित होकर आहत स्वार्थ की प्रतिक्रिया में इस मामले पर केवल आरक्षण विरोध को सही ठहराने और एक तरह से उसे प्रायोजित भी करने की हर संभव कोशिश की। कहते हैं कि "मँझधार में जब नैया डोले तो माँझी उसे बचाए लेकिन जब माँझी ही नैया डुबोए तो उसे कौन बचाए ?" योग्यता की हत्या का बेवजह हौवा खड़ा किया गया, ओ.बी.सी. की आबादी के मनगढ़ंत आँकड़े ढूँढ़ निकाले गए और आरक्षण के प्रावधान के संवैधानिक महत्व को स्खलित करने के लिए तमाम थोथे तर्क दिए जाते रहे और आरक्षण को टालने के लिए तमाम फिजूल उपाय सुझाये जाते रहे। मीडिया के कैमरे का फोकस 'योग्यता' के मुखर स्वरों पर केन्द्रित रहा जो तरह-तरह के प्रदर्शनों के आयोजन से उनके लिए मसालेदार ख़बरों का तैयार माल उपलब्ध कराता रहा। प्रेस और मीडिया में सवर्ण लोगों का वर्चस्व भारतीय जनमानस और जनमत के लिए कितना असंतुलनकारी हो सकता है यह आरक्षण के मुद्दे पर जाहिर हो गया। यह स्थिति इस क़दर विस्फोटक हुई कि पटना में आरक्षण के समर्थक डॉक्टरों और छात्रों ने मीडिया को कसूरवार मानते हुए उसे अपने आक्रोश का शिकार बना डाला। प्रेस और मीडिया के इस अविवेक पर अंकुश लगाने के लिए कुछ विवेकशील पत्रकारों ने हस्तक्षेप करने की कोशिश की। कई पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने मुद्दे के दूसरे पहलू से भी जनमानस को अवगत कराने की चेष्टा की। देर से ही सही, मीडिया में विवेक का कहीं-कहीं संचार हुआ भी। कंज्यूमर चैनल आवाज़ पर संजय पुगलिया ने योजना आयोग के सदस्य, डॉ. भालचन्द मुंगेकर से आरक्षण के मुद्दे पर लंबी बातचीत करके दूसरे पक्ष को अपनी बात रखने का अवसर दिया। हालाँकि इसी चैनल पर शिशिर सिन्हा एक परिचर्चा को प्रायोजित करके आरक्षण के विरोध को एकतरफा ढंग से सही ठहराने की 'बेशर्मी' दिखा चुके थे। विचार चैनल 'जनमत' पर अल्का सक्सेना ने भी एक परिचर्चा में कुछ इसी तरह की 'बेवकूफी' की थी। हालाँकि इस चैनल ने एक अन्य कार्यक्रम में उदित राज को भी आमंत्रित किया था, लेकिन उन्हें आरक्षण समर्थकों के झुंड के बीच में अकेले खड़ा करके कार्यक्रम के संचालन का जिम्मा एक ऐसे अनाड़ी पत्रकार को सौंप दिया गया था जो बात-बात पर उछल-उछल कर आरक्षण का विरोध करने लगता था। 25 मई को ज़ी न्यूज ने योगेन्द्र यादव से बात करते हुए मीडिया की इस भूल को स्वीकार किया कि उसने 'शायद' आरक्षण के मसले पर दूसरे पक्ष की आवाज को उचित महत्व नहीं देकर गलती की थी। सीएनएन-आईबीएन पर करन थापर अपने कार्यक्रम 'डेविल्स एडवोकेट' में अर्जुन सिंह और कमल नाथ को एन.एस.एस.ओ. के भ्रामक आँकड़ों के जाल में लपेटकर आरक्षण-विरोध को तार्किक आधार देने की विफल कोशिश कर चुके थे। एनडीटीवी पर विनोद दुआ ने भी आरक्षण-विरोधियों द्वारा सुझाए गए कुछ थोथले उपायों को अपने प्रश्न के उत्तरों का विकल्प बनाकर एसएमएस के द्वारा भारतीय जनमत को जानने और शायद आरक्षण के समर्थकों को 'ख़बरदार' करने की कोशिश की, लेकिन नीलोत्पल बसु ने उन्हें कामयाब होने नहीं दिया। अपने चेहरे पर बुरी नीयत और बेशर्मी की परतों को छुपाने के लिए ये स्वनामधन्य पत्रकार श्रोताओं की आवाज के मुखौटे का इस्तेमाल करते हैं। इसी का विरोध करने के लिए 27 मई को दिल्ली में Journalists for Democracy के बैनर तले बड़ी संख्या में जागरूक पत्रकारों ने प्रेस और मीडिया द्वारा आरक्षण के मुद्दे पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाये जाने के मुद्दे पर एक सेमिनार का आयोजन किया। सेमिनार में पत्रकारों, बुद्धिजीवियों एवं विशेषज्ञों ने प्रेस एवं मीडिया में सवर्णों का वर्चस्व होने और इस वर्चस्व के बल पर आरक्षण के मुद्दे पर एकतरफा, पक्षपातपूर्ण और पूर्वग्रह-प्रेरित रवैया अपनाते हुए आरक्षण-विरोध के आंदोलन को बढ़ावा देने और उसे प्रायोजित करने का आरोप लगाया। इसके साथ ही, यह मांग भी उठाई गई कि मीडिया में भी दलितों एवं पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण होना चाहिए ताकि मीडिया द्वारा लोकतंत्र और संविधान-विरोधी कदम उठाए जाने की किसी कोशिश को नाकाम किया जा सके। एनडीटीवी इंडिया पर 27 मई को 'मुकाबला' कार्यक्रम में भी बहस का मुद्दा यही था कि क्या मीडिया आरक्षण के मुद्दे पर सवर्णों के साथ है, क्या वह आरक्षण-विरोधी आंदोलन का साथ दे रहा है। कार्यक्रम के पैनल में शामिल 6 विशेषज्ञों में से प्रभाष जोशी, अरुण रंजन, निखिल वागले, अपूर्वानन्द जैसे पाँच विशेषज्ञों ने तर्क और सबूत देते हुए यह सिद्ध कर दिया कि मीडिया इस मामले पर सवर्णी पक्षपात की भावना से प्रेरित रहा है और वह पिछड़े वर्गों एवं दलितों के विरोध में सोच-समझकर मुहिम चला रहा है। 'मुकाबला' का संचालन कर रहे दिवांग ने भी यह स्वीकार किया कि आरक्षण के मुद्दे पर अपनी भूमिका के मामले में प्रेस और मीडिया को अपने गिरेबान में झाँकने और निष्पक्ष रवैया अपनाने की जरूरत है। 28 मई को आवाज चैनल पर संजय पुगलिया ने आरक्षण-विरोधियों के तर्कों को प्रत्युत्तर देने के लिए उदित राज को आमंत्रित किया और उन्होंने सारे प्रश्नों का बखूबी उत्तर भी दिया। उसके बाद 29 मई को सीएनएन-आईबीएन के कार्यक्रम 'Face The Nation' में भी आउटलुक पत्रिका के संपादक विनोद मेहता ने प्रमाणों एवं तर्कों के बल पर जोरदार तरीके से सिद्ध किया कि आरक्षण के मुद्दे पर प्रेस और मीडिया का रवैया नितांत आपत्तिजनक, पक्षपातपूर्ण और पत्रकारिता के आदर्शों एवं सिद्धांतों के विपरीत रहा है। हालाँकि इस कार्यक्रम के पैनल में आमंत्रित विशेषज्ञों का अनुपात भी संतुलित नहीं था। लेकिन अकेले विनोद मेहता सचाई का बयान करने के मामले में आरक्षण-विरोध के पक्ष में स्टूडियो में बुलाए गए तीनों आरक्षण-विरोधियों पर भारी पड़े और कार्यक्रम की संचालिका सागरिका घोष ने भी यह स्वीकार किया कि मीडिया का रवैया आरक्षण के मुद्दे पर अब तक पक्षपातपूर्ण रहा है। इस कार्यक्रम में इस विषय पर विशेष रपट भी दिखाई गई कि आरक्षण-विरोधी आंदोलन को संगठित और योजनाबद्ध ढंग से चलाए जाने के लिए कहाँ-कहाँ से वित्तीय मदद और प्रायोजन हासिल हो रहा है। इस रिपोर्ट ने उदित राज के उस आरोप को सप्रमाण साबित कर दिया कि निजी क्षेत्र की बड़ी-बड़ी कंपनियाँ और यहाँ तक कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आरक्षण-विरोधी आंदोलन को प्रायोजित कर रही हैं। वैकल्पिक मीडिया जगत यानी अंतर्जाल (इंटरनेट) और चिट्ठों (ब्लॉग) पर भी लगभग ऐसा ही आलम रहा। टाइम्स ऑफ इंडिया की हिमांशी धवन ने इस मुद्दे पर सबसे पहले चिट्ठाकारों की सक्रियता की नब्ज टटोली। चर्चित अंग्रेजी ब्लॉगर रश्मि बंसल ने स्वयं ओ.बी.सी. होते हुए भी आरक्षण के विरोध के तर्कों को सही ठहराने के लिए गंभीर कोशिश की। हिन्दी चिट्ठाकारों में भी हर जगह आरक्षण के विरोध का एक सुर में आलाप चल रहा था। अनेक चिट्ठाकारों ने तो बकायदा अपने चिट्ठे पर लोगो बनाकर यह घोषणा चिपका रखी थी कि "मैं शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण का विरोध करता हूँ"। ऐसे में मैंने इस मुद्दे पर दूसरे पक्ष के तर्कों को विनम्रता से रखते हुए एक सार्थक बहस शुरू करने की पहल करना जरूरी समझा। मेरी आशंका के मुताबिक आरक्षण संबंधी मेरे पहले आलेख पर तीव्र प्रतिक्रियाएँ आईं। एक-दो मित्रों ने आरक्षण के समर्थन में टिप्पणी करने की दिलेरी दिखाई तो उन्हें सामने आने की चुनौती तक दी गई। कुछ दिनों बाद युगल मेहरा ने आरक्षण के समर्थन में कुछ बातें रखने की चेष्टा की। अनूप शुक्ला ने भी अपने अनुभवों के आधार पर आरक्षण की आवश्यकता और उसके महत्व को रेखांकित करने की प्रभावी कोशिश की, जिसका रवि रतलामी ने अपने खास अंदाज में खंडन करने की चेष्टा की। मैंने आरक्षण बनाम योग्यता की बहस के तर्काधार की तह में जाने की भी चेष्टा की और आरक्षण विरोध की असलियत को उजागर करने के लिए एक आलेख लिखा जिसकी अन्यत्र भी काफी चर्चा हुई। हिन्दी चिट्ठाकारों के बीच परस्पर संवाद के लिए बनाए गए नए मंच 'परिचर्चा' पर आरक्षण के मुद्दे पर जोरदार बहस शुरू हुई। बहस का आरंभ करते हुए जीतेन्द्र चौधरी ने मुझे इस बहस में शामिल होने की 'चुनौती' दी। मुझे इस चुनौती की सूचना कुछ देर से मिली, तब तक कुछ अन्य मित्र भी आरक्षण के समर्थन में मोर्चा संभाल चुके थे, जिनमें नीरज दीवान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस बहस ने कुछ हद तक घमासान रूप ले लिया और दोनों तरफ से जोरदार तर्क और तथ्य प्रस्तुत किए गए। परिचर्चा में जब मैंने आरक्षण-विरोधियों द्वारा दी गई दलीलों का ठोस और तर्कपूर्ण प्रत्युत्तर देना शुरू किया तो उसके बाद वहाँ खामोशी-सी छा गई और फिर उनके पास शायद कोई दलील नहीं बची। यह बहस मीडिया, राजनीति, शिक्षण संस्थानों और समाज में अब भी जारी है। यह मामला अब उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है और सरकार अपने स्तर पर भी वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाली एक विशेष समिति के द्वारा आरक्षण के प्रावधान को लागू करने से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर विचार कर रही है। यह तो तय है कि पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के मुद्दे पर तमाम विरोध के बावजूद सरकार इस मामले पर कदम वापस ले पाने की स्थिति में नहीं है।

Monday, May 29, 2006

आरक्षण के समर्थन में मुखर अन्य प्रभावी स्वर

  • हंस, जून, 2006

अर्जुनों का विद्रोह

  • The Hindu, 18 June, 2006
The return of discrimination
  • Frontline, 03-16 June, 2006
Pride and prejudice
  • IBN Live.com, 10 June, 2006

No review of quota policy: FM

  • CNN-IBN, 10 June, 2006

Majority of Indians want quota

  • Rediff.com, 10 June, 2006

Quotas and the notion of merit

  • The Hindu, 9 June, 2006

Need for implementation of quota stressed

  • The Times of India, 7 June, 2006

A Useful Category

  • The Hindu, 5 June, 2006

Upper castes dominate national media, says survey in Delhi

  • The Hindustan Times, 5 June, 2006

Some merit to quotas

  • The Hindu, 3 June, 2006

Caste matters in the Indian media

  • The Indian Express, 31 May, 2006

Goodwill, greed and the righting of history

  • YAHOO India News/ANI, 28 May, 2006

'Journalists for Democracy' call for balanced reporting on quota issue

  • Outlook India, 29 May, 2006

Rainbow Warriors

  • दैनिक जागरण, 20 मई, 2006

कुछ बातें आरक्षण के पक्ष में

  • दैनिक जागरण, 11 मई, 2006

सामाजिक परिवर्तन का मार्ग

  • The Times of India, 10 May, 2006

'Scrap Knowledge Commission'

  • The Telegraph, 9 May, 2006

Knowledge Commission divided on education reservation

  • दैनिक हिन्दुस्तान, 8 मई, 2006

आरक्षण का हक बनता है या नहीं?

  • The Telegraph, 29 अप्रैल, 2006

CLASSY CAST OF MIND

  • राष्ट्रीय सहारा, 27 अप्रैल, 2006

आरक्षण : समान प्रतिस्पर्धा के भोथरे तर्क

  • Counter Currents, 18 अप्रैल, 2006

Why Reservation For OBC Is A Must

  • Ambedkar.org, 17 April, 2006

The Other Side of Merit & Mandal II

  • The Hindu, 12 अप्रैल, 2006

Lessons from the new intolerance

  • The Times of India, 11 April, 2006

Mandal-II: It's the age of pro-reservation bloggers

  • Frontline, 22 Oct - 04 Nov, 2005

On reservations in the private sector

  • वागर्थ, अक्तूबर, 2004

लघुकथा : आरक्षण

  • Counter Currents, 22 June, 2004

Reservation For Dalits In Private Sector

नोट : इस संकलन में नई-नई कड़ियों को जोड़े जाने की प्रक्रिया जारी है। आप भी इस विषय पर अन्य महत्वपूर्ण कड़ियों की सूचना अपनी टिप्पणी सहित दे सकते हैं।