वर्चस्व और प्रतिरोध की पृष्ठभूमि
समाज में शांति, सौहार्द और समरसता स्थापित करने के लिए समानता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना अनिवार्य है। लेकिन भारतीय समाज में समानता और स्वतंत्रता कभी वास्तविकता नहीं रही। पुरातन काल से ही हमारे यहाँ व्यक्ति को समाज की स्वतंत्र इकाई के रूप में देखने के बजाय उन्हें जाति और वर्ण व्यवस्था के दायरे में आबद्ध माना जाता रहा। वर्ण-व्यवस्था का सूत्रपात करते समय भले ही गुण और कर्म के सिद्धांत का तर्काधार प्रस्तुत किया गया हो, लेकिन भारतीय समाज के इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि यह व्यवस्था दरअसल समाज को पदानुक्रम के साँचे में ढालने के लिए बनाई गई थी। यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने-अपने संस्कार और स्वभाव के अनुरूप कार्य करते हुए भी सामाजिक धरातल पर समान माने जाते तब तो कोई समस्या ही नहीं थी। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कभी नहीं हो सका। ब्राह्मण अपने को समाज में हमेशा सर्वश्रेष्ठ और बाकी वर्ण के लोगों को हीन मानते रहे।
वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच आजीवन यही सिद्ध करने के लिए संघर्ष चलता रहा कि ब्राह्मण और क्षत्रिय में से श्रेष्ठ कौन है। परशुराम ने तो धरती को क्षत्रिय-विहीन कर देने की शपथ ले रखी थी और हजारों क्षत्रियों को अपने फरसे से मौत के घाट उतार दिया था। राहुल सांकृत्यायन ने ‘वोल्गा से गंगा तक’ में प्राचीन भारत में जातीय श्रेष्ठता के अभिमान को लेकर चलने वाले ऐसे रक्तरंजित संघर्षों का सविस्तार वर्णन किया है। परशुराम को जब अपने प्रतिभाशाली और गुरुभक्त शिष्य कर्ण के बारे में यह ज्ञात हुआ कि वह ब्राह्मण नहीं, बल्कि एक क्षत्रिय है तो उसे श्राप दे दिया कि जब उसे धनुर्विद्या का उपयोग करने की सर्वाधिक जरूरत होगी तब वह सारी विद्या भूल जाएगा। धनुर्विद्या के कौशल की प्रतियोगिता में कर्ण को इस आधार पर बाहर रखने का प्रयास किया गया कि वह सारथी का पुत्र होकर क्षत्रियों और राजकुमारों के समकक्ष अवसर नहीं हासिल कर सकता। अत्यंत प्रतिभाशाली होने के बावजूद एकलव्य को द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या की शिक्षा देने से इसलिए इनकार कर दिया क्योंकि वह भील जाति का था और जब उसने स्वयं अपनी लगन और मेहनत से वह विद्या हासिल कर ली तब द्रोण ने छल से दक्षिणा के रूप में उसका दाहिना अंगूठा मांग लिया ताकि वह अपनी विद्या का उपयोग नहीं कर सके। एकांत वन में मौन ध्यान में लीन शूद्र ऋषि शंबूक की हत्या ब्राह्मणों ने दबाव डालकर श्रीराम के हाथों इसलिए करवा दी ताकि वह ब्रह्मज्ञानी न बन जाए।
फिर भी, प्राचीन भारत में महर्षि अगस्त्य, बाल्मीकी जैसे कई बह्मज्ञानी और महाकवि हुए जो उपेक्षित जातियों में जन्म लेने के बावजूद अपनी प्रतिभा की श्रेष्ठता और विशिष्टता साबित कर पाने में सफल रहे। बुद्ध के मार्ग में भी ब्राह्मणों ने बहुत रोड़े अटकाए, क्योंकि वह वर्चस्ववादी वर्ण-व्यवस्था के स्थान पर समानता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की प्रतिष्ठा करना चाह रहे थे। शंकराचार्य और उनके अनुयायियों ने तो बौद्ध धर्म का भारत से उन्मूलन करने के लिए हर संभव कोशिशें कीं, क्योंकि बौद्ध धर्म समाज के पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों को बराबरी के धरातल पर लाने का सफल आंदोलन चला रहा था। पिछले पाँच हजार वर्षों में ऐसे हजारों उदाहरण हैं जब स्वयं को श्रेष्ठ कहने वाली जाति के लोगों ने अन्य जाति के प्रतिभाशाली लोगों को आगे बढ़ने से रोकने की हर संभव कोशिशें कीं। कबीर जुलाहे के घर में पले-बढ़े थे, इसीलिए उन्हें ब्राह्मणों से उपेक्षा और अपमान झेलनी पड़ी। ब्राह्मण रामानन्द जब जुलाहे कबीर को दीक्षा देने के लिए तैयार नहीं हुए तो कबीर को उनसे गुरुदीक्षा लेने के लिए अँधेरे में बनारस के घाट की सीढ़ियों पर लेटने का उपाय निकालना पड़ा ताकि अनजाने में रामानन्द के पैर उन पर पड़ जाएँ। जब एक दिन ऐसा ही हुआ तो घबराकर अनजाने में रामानन्द के मुख से निकले “राम-राम” को ही कबीर ने अपना गुरु-मंत्र मान लिया। कबीर ने अपने जीवन में जो व्यथा झेली वही उनकी कविता और उपदेशों में वर्चस्ववादी वर्णाश्रम-व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध के तीव्र स्वर के रूप में अभिव्यक्त हुआ। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को जब उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला तो उन्होंने साबित कर दिखाया कि यदि दलित वर्ग के लोगों को अपनी प्रतिभा को निखारने का मौका मिले तो वे तथाकथित ऊँची जाति के लोगों से बेहतर उपलब्धि हासिल कर सकते हैं।
लेकिन वर्ष 1950 में भारतीय संविधान लागू होने से पहले तक पिछड़े और दलित वर्गों के जो भी व्यक्ति अपनी प्रतिभा को विकसित कर पाने में सफल हुए वे या तो जबरदस्त जीवट वाले व्यक्ति थे जो समस्त प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद अध्यवसाय के बल पर अपनी श्रेष्ठता साबित कर सके या फिर उन्हें संयोगवश ऊँची जातियों के ही किसी विरले उदार महापुरुष का सानिध्य मिल गया। पिछड़े वर्ग के महात्मा गाँधी को भी गोखले और तिलक का वरदहस्त मिल जाने से उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेतृत्व पर सहजता से स्थापित होने में मदद मिली थी।
संविधान में शामिल उपबंध
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विकसित हुए मानवीय मूल्यों के आधार पर निर्मित भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किए जाने के बाद पहली बार दलित वर्ग अर्थात् अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों को संवैधानिक अधिकार के रूप में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता मिल सकी। संविधान के अनुच्छेद 46 के अंतर्गत राज्य की नीति के निदेशक तत्व के रूप में उपबंध किया गया कि “राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा।” सरकार ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान और उनको समानता के स्तर पर लाने के लिए कई आवश्यक कदम तुरंत उठा लिए और यह सिलसिला अब भी जारी है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारी सेवाओं में सीधी भर्ती के मामले में आरक्षण 21 सितम्बर, 1947 से और पदोन्नति के मामले में आरक्षण 4 जनवरी, 1957 से ही लागू है। लेकिन आरक्षण के लाभ से सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े अन्य वर्गों के बहुसंख्यक लोगों को वंचित ही रखा गया, क्योंकि कई दशकों तक इन पिछड़े वर्गों की स्पष्ट पहचान ही स्थापित नहीं हो सकी। हालाँकि संविधान में इसके लिए स्पष्ट उपबंध मौजूद रहे हैं।
संविधान के अनुच्छेद 340(1) में उपबंध है कि “राष्ट्रपति भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की दशाओं के और जिन कठिनाइयों को वे झेल रहे हैं उनके अन्वेषण के लिए और उन कठिनाइयों को दूर करने और उनकी दशा को सुधारने के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा जो उपाय किए जाने चाहिएं उनके बारे में और उस प्रयोजन के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा जो अनुदान किए जाने चाहिएं और जिन शर्तों के अधीन वे अनुदान किए जाने चाहिएं उनके बारे में सिफारिश करने के लिए, आदेश द्वारा, एक आयोग नियुक्त कर सकेगा जो ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनेगा जो वह ठीक समझे और ऐसे आयोग को नियुक्त करने वाले आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।” आगे अनुच्छेद 340(2) में कहा गया है कि “इस प्रकार नियुक्त आयोग अपने को निर्देशित विषयों का अन्वेषण करेगा और राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा, जिसमें उसके द्वारा पाए गए तथ्य उपवर्णित किए जाएंगे और जिसमें ऐसी सिफ़ारिशें की जाएंगी जिन्हें आयोग उचित समझे।” अनुच्छेद 340(3) के अनुसार “राष्ट्रपति, इस प्रकार दिए गए प्रतिवेदन की एक प्रति, उस पर की गई कार्रवाई को स्पष्ट करने वाले ज्ञापन सहित, संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा।”
संविधान के अनुच्छेद 15 के अंतर्गत धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करने के लिए उपबंध करते समय अनुच्छेद 15(4) के अंतर्गत यह परंतुक जोड़ा गया है कि “इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।” इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 16 के अंतर्गत लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता के संबंध में उपबंध करते हुए अनुच्छेद 16(4) के अंतर्गत यह परंतुक भी जोड़ा गया है कि “इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।”
हाल ही में 20 जनवरी, 2006 को अधिनियमित 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा अंत:स्थापित अनुच्छेद 15(5) के अनुसार, “इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उप-खंड (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए विधि द्वारा कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी, जहाँ तक ऐसे विशेष उपबंध, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर, निजी शैक्षिक संस्थानों सहित शैक्षिक संस्थानों, चाहे वे राज्य से सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त हों, में प्रवेश से संबंधित हों।”
पिछड़ा वर्ग आयोगों की सिफारिशें
जैसा कि उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण एवं अन्य विशेष प्रावधान किए जाने के संबंध में कई बार उल्लेख किया गया है, लेकिन इसके लिए पिछड़े वर्गों की पहचान को स्पष्ट करने और उनकी पहचान के लिए मानदंड निर्धारित किए जाने की आवश्यकता थी। इसलिए, अनुच्छेद 340 का अनुपालन करते हुए पहली बार राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 29 जनवरी, 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। इस आयोग ने अपनी सिफारिशें 30 मार्च, 1955 को सरकार को सौंप दी। अपने प्रतिवेदन में कालेलकर आयोग ने 2399 पिछड़ी जातियों को सूचीबद्ध किया जिनमें से 837 को ‘अति पिछड़ा’ घोषित किया गया। इस आयोग ने सभी महिलाओं को पिछड़ी जाति के अंतर्गत शामिल किए जाने और सभी तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए 70% सीटों के आरक्षण की सिफारिश की थी। इसके अलावा सभी सरकारी सेवाओं और स्थानीय निकायों में क्लास I पदों के लिए 25%, क्लास II पदों के लिए 33.5% तथा क्लास III और IV पदों के लिए 40% स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित करने की सिफारिश की गई थी। यदि भारतीय समाज में पिछड़े वर्गों की जनसंख्या के आधार पर शिक्षा और सेवा में उनको वास्तविक प्रतिनिधित्व देने की बात की जाए तो वे सिफारिशें बहुत हद तक न्यायसंगत थीं। लेकिन उस दौर के राजनीतिक परिदृश्य में पिछड़े वर्गों का नेतृत्व इतना संगठित और जागरूक नहीं था कि उन सिफारिशों पर अमल करवाने के लिए सरकार पर कोई सशक्त दबाव बना पाता। सत्ता, सरकार और राजनीति में अगड़ी कही जाने वाली जातियों का बोलबाला था। काका कालेलकर आयोग की सिफारिशें उस दौर के राजनीतिक हालात में अति क्रांतिकारी थीं, इसलिए उनका हश्र वही हुआ जो सुनिश्चित ही था। पंडित नेहरू की सरकार ने वे सिफारिशें बिल्कुल खारिज कर दीं। उसके बाद कांग्रेस की सरकारों ने पिछड़े वर्गों से संबंधित संवैधानिक उपबंधों को कार्यान्वित करने की दिशा में कोई सुगबुगाहट नहीं दिखाई।
आपातकाल के बाद लोकनायक जयप्रकाश के आंदोलन की लहर में बनी जनता पार्टी की सरकार ने 1 जनवरी, 1979 को बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। मंडल आयोग ने अपनी सिफारिशें दिसम्बर, 1980 में सरकार को सौंप दीं। लेकिन तब तक जनता पार्टी की सरकार बिखर चुकी थी और सत्ता की बागडोर फिर से कांग्रेस पार्टी के हाथ में आ चुकी थी। इसलिए मंडल आयोग की सिफारिशें भी उस समय सरकार के ठंडे बस्ते में डाल दी गईं। मंडल आयोग ने अपनी सिफारिशों में कहा कि यद्यपि अन्य पिछड़े वर्गों की जनसंख्या देश की कुल जनसंख्या का लगभग 52% है, लेकिन 50% से अधिक आरक्षण नहीं होने की कानूनी बाध्यता को ध्यान में रखते हुए पहले से अनुसूचित जाति को तथा अनुसूचित जनजाति को उनकी जनसंख्या के अनुपात में दिए जा रहे क्रमश: 15% तथा 7.5% आरक्षण को बरकरार रखते हुए पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण की गुंजाइश बचती है, लिहाज़ा उन्हें कम से कम 27% आरक्षण दिया ही जाना चाहिए। मंडल आयोग ने अपनी सिफारिशों में स्पष्ट रूप से यह कहा कि अन्य पिछड़े वर्ग के जो प्रतियोगी प्रतिभा के आधार पर सामान्य श्रेणी के अंतर्गत सफल होते हैं, उन्हें अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित 27% सीटों के दायरे में नहीं समायोजित किया जाना चाहिए। इसके अलावा, नहीं भरी जा सकी आरक्षित सीटों को तीन वर्षों तक आगे बरकरार रखा जाना चाहिए। अन्य पिछड़े वर्गों के मामले में भी प्रत्येक श्रेणी के पद के लिए उसी प्रकार की रोस्टर प्रणाली अपनायी जानी चाहिए जैसा कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के मामले में अपनायी जाती है। इसके अलावा भर्ती के लिए उच्चतम आयु सीमा में अन्य पिछड़े वर्ग के प्रत्याशियों को भी छूट दी जानी चाहिए। मंडल आयोग ने अपनी सिफारिशों के संबंध में बल देते हुए यह कहा कि इन्हें केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों तथा सरकारी उपक्रमों तथा राष्ट्रीयकृत बैंकों में की जाने वाली सभी भर्तियों के मामले में लागू किया जाना चाहिए। इसके अलावा, निजी क्षेत्र के उन सभी संगठनों में भी उपर्युक्त आधार पर आरक्षण को लागू किया जाना चाहिए जो किसी न किसी रूप में सरकार से आर्थिक सहायता लेते हैं। इन सिफारिशों में कहा गया कि दूसरे चरण में, सभी स्तरों पर पदोन्नति तथा सभी विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थाओं में भी आरक्षण की उपर्युक्त योजना को लागू किया जाना चाहिए।
कालचक्र ने दिया अनुकूल अवसर
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि मंडल आयोग की सिफारिशों को इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेसी सरकारों ने जानबूझकर ठंडे बस्ते में डाले रखा। लेकिन 1989 में संयुक्त मोर्चे की सरकार का नेतृत्व कर रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकार से अलग हुए देवीलाल की चुनौती का सामना करने के लिए आनन-फानन में 7 अगस्त, 1990 को घोषणा कर दी कि सरकारी सेवाओं और सरकारी उपक्रमों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27% स्थान आरक्षित किए जाने संबंधी मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाएगा। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के संबंध में विश्वनाथ प्रताप सिंह की न तो पहले से कोई योजना नहीं थी और न ही वह सामाजिक न्याय की विचारधारा को मानने वाले नेता थे। यहाँ तक कि घोषणा करने से पहले उन्होंने अपने मंत्रिमंडल के सबसे घनिष्ठ सहयोगियों बीजू पटनायक, रामकृष्ण हेगड़े, यशवंत सिन्हा और अरुण नेहरु से भी कोई परामर्श नहीं किया था। सरकार को समर्थन कर रही वामपंथी पार्टियाँ और भारतीय जनता पार्टी भी इस घोषणा से क्षुब्ध थीं। देवीलाल और चन्द्रशेखर तक ने उन सिफारिशों को इतनी हड़बड़ी में लागू किए जाने पर खुलकर आलोचना की थी। प्रेस और मीडिया ने भी, जिसमें ऊँची जातियों के लोगों का वर्चस्व है, इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर आरक्षण का मुखर विरोध ही किया। तात्पर्य यह कि तथाकथित ऊँची जातियों का कोई भी व्यक्ति वास्तव में पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण का संवैधानिक अधिकार दिए जाने के पक्ष में नहीं था। शायद कालचक्र ही घूमते-घूमते उस घड़ी में आ पहुँचा था जब हजारों वर्षों के अन्याय, उपेक्षा और तिरस्कार के बाद पिछड़े वर्गों के दिन फिर से सँवरने वाले थे। यही कारण रहा होगा इसीलिए हिंसक विरोध और उत्तेजक प्रतिक्रिया के बावजूद विश्वनाथ प्रताप सिंह का निश्चय अटल रहा और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण दिए जाने का प्रावधान कार्यान्वित हो गया। हालाँकि उस समय मंडल आयोग की सिफारिशें आंशिक रूप से ही लागू की जा सकीं।
विश्वविद्यालयों एवं शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण
अब एक बार फिर पिछड़े वर्गों के लिए अनुकूल स्थितियाँ बन रही हैं, जब मंडल आयोग की कुछ अन्य सिफारिशों को लागू करने का प्रस्ताव किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इस बार यह प्रस्ताव कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की ओर से आया है। हालाँकि इस मामले में सरकार के इरादे की गंभीरता संदेह के दायरे में है। संविधान के अनुच्छेद 15(5) के अधीन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और केन्द्र सरकार द्वारा वित्तपोषित शैक्षिक संस्थाओं में अन्य पिछले वर्ग के छात्रों को 27% आरक्षण दिए जाने का मौजूदा प्रस्ताव मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की ओर से आया है जो मौजूदा सरकार और कांग्रेस पार्टी में इतनी प्रभावी स्थिति में नहीं हैं कि इस प्रस्ताव को अपने दम पर कार्यान्वित करवा सकें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी की तरफ से इसके पक्ष में कोई बयान तक नहीं आया है। राजनीति के जानकार इस प्रस्ताव को कुछ राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं। कुछ जानकार इसे तीसरे मोर्चे के एक बार फिर से संगठित होने की कवायद के आगे बढ़ने से पहले ही उसे मात देने की कांग्रेसी पहल के रूप में देख रहे हैं। लेकिन प्रेस और मीडिया का एक बड़ा वर्ग हमेशा की तरह आरक्षण के इस प्रस्ताव पर शुरू से विरोध का झंडा बुलंद करने में जुट गया है। प्रेस और मीडिया जनता को मिले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार और सूचना के अधिकार का ही उपयोग करते हुए अपना व्यवसाय चलाता है, लेकिन उसमें 95% प्रतिनिधित्व ऊँची जातियों का है, वह भारतीय समाज का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता, इसलिए वह पिछड़ी जातियों को संविधान-सम्मत अधिकारों से वंचित करने के लिए अपनी मुहिम में एक बार फिर से संगठित रूप से जुट गया है। आरक्षण संबंधी संवैधानिक प्रावधानों का मखौल उड़ाने और उनके विरोध को प्रायोजित करने की उसकी यह रणनीति दरअसल उसकी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा को ही प्रभावित करेगी।
पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का विरोध करते समय प्रगतिशील बौद्धिकता और सामाजिक न्याय के आवरण को ओढ़े रखने की कोशिश करने वालों इन पत्रकारों और ‘विशेषज्ञों’ की ओर से अकसर आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने की वकालत की जाती है। वे दरअसल भलीभाँति जानते हैं कि परिश्रम, शिल्प-कौशल और अध्यवसाय से संपन्न पिछड़ा वर्ग परिस्थिति की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अपनी आर्थिक स्थिति को लगातार मजबूत करने के उद्यम में लगा रहता है, भले ही उसके लिए शिक्षा और सत्ता के दरवाजे बंद कर दिए गए हों। यदि आरक्षण का आधार आर्थिक हो और उसके लिए राजस्व अधिकारियों द्वारा जारी आय प्रमाण पत्र ही मानदंड हो तो अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित आय प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा आय प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।
आरक्षण-विरोधियों द्वारा दूसरा सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि आरक्षण के प्रावधान से प्रतिभा के सही विकास में बाधा आएगी और पिछड़ी जाति के कमजोर प्रतियोगी प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए आयोजित प्रतियोगिता परीक्षा में ऊँची जाति के प्रतिभाशाली प्रतियोगियों की तुलना में कम अंक हासिल करने के बावजूद आरक्षण के आधार पर आगे निकल जाएंगे जिससे न सिर्फ उन शैक्षिक संस्थानों की उत्कृष्टता प्रभावित होगी, बल्कि उन संस्थानों से शिक्षा हासिल करके जो पेशेवर निकलेंगे उनकी योग्यता का स्तर भी अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप नहीं होगा। ये महानुभाव लोग भी अपने पुरखों की तरह मानकर चल रहे हैं कि प्रतिभा ऊँची जाति के साधन-सत्ता संपन्न लोगों की बपौती होती है जो केवल उन्हें ही जन्मजात मिलती है। उनका मानना है कि जो लोग उनकी बनाई हुई जाति-व्यवस्था में अपने पिछले जन्मों के अज्ञात बुरे कर्मों की वजह से पिछड़ी जाति के अनपढ़ माँ-बाप के घर में पैदा होते हैं उनके पास प्रतिभा हो ही नहीं सकती है। ऊँची जातियों के इस खुल्लमखुल्ला बेशर्म पक्षपात, अन्याय और दंभ के बावजूद पिछले पाँच हजार वर्षों में और विशेषकर भारतीय संविधान के लागू होने के बाद पिछड़े और दलित वर्गों के लाखों लोगों ने तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद बारंबार यह साबित किया है कि प्रतिभा तथाकथित ऊँची जातियों की बपौती नहीं होती, बल्कि प्रकृति के नैसर्गिक वरदान की तरह सर्वत्र विद्यमान रहती है, उसे केवल विकास के लिए अनुकूल माहौल की आवश्यकता होती है। प्राय: हर प्रतियोगिता परीक्षा के परिणाम में इस तथ्य को सहज ही देखा जा सकता है कि पिछड़े वर्ग के बहुत से छात्र आरक्षण का लाभ उठाए बगैर सामान्य श्रेणी के दायरे में प्रतिभा सूची में स्थान हासिल करने में सफल रहते हैं। फिर भी, विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का लाभ उनके अंदर छिपी प्रतिभा के विकास के लिए अनुकूल माहौल प्रदान करने के उद्देश्य से जरूरी है, क्योंकि प्रतिभा के विकास का समान अवसर दिए जाने के बाद ही स्वस्थ प्रतियोगिता संभव हो सकती है। जिन परिस्थितियों में भी संभव हो, यदि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार पिछड़े वर्गों के लिए विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थाओं में 27% आरक्षण के प्रावधान को लागू करा पाती है तो ऐसा करके वह न सिर्फ अपने संवैधानिक दायित्वों की पूर्ति करेगी, बल्कि अपने अपराध-बोध को भी कुछ हद तक कम कर सकेगी जो उसने पिछड़े वर्गों के प्रति पिछले 60 वर्षों में बरती लगातार उपेक्षा के कारण उनका समर्थन गँवाकर अर्जित की है।
पदोन्नति में आरक्षण और निजी क्षेत्र में आरक्षण
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की ही तरह पिछड़े वर्गों के लिए भी सरकारी सेवाओं में पदोन्नति के मामले में आरक्षण के प्रावधान को लागू किए जाने का मामला लंबे समय से उठाया जाता रहा है। मंडल आयोग की सिफारिशों में यह मुद्दा भी शामिल था। 1990 में सरकारी सेवाओं में भर्ती के समय आरक्षण दिए जाने के मामले पर जो विरोध हुआ उसको देखते हुए दूसरे चरण के आरक्षण को लागू करने के संबंध में बाद की कोई सरकार अब तक हिम्मत नहीं जुटा सकी है। हालाँकि इस विषय पर कुछ वर्षों से संसद एवं सरकार में विभिन्न स्तरों पर विचार चल रहा है और संबंधित संसदीय समिति ने भी प्रबल सिफारिश की है कि अन्य पिछड़े वर्ग के अधिकारियों और कर्मचारियों को भी अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की ही तरह पदोन्नति में आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए। विभाग-संबंधित कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष ई. एम. सुदर्शन नाचीयप्पन की ओर से 29 जून, 2005 को राज्य सभा के सभापति को प्रस्तुत और उसी दिन लोक सभा अध्यक्ष को अग्रेषित अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (पदों और सेवाओं में आरक्षण) विधेयक, 2004 से संबंधित आठवें प्रतिवेदन में समिति ने सिफारिश की है कि “अन्य पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान करने संबंधी संवैधानिक दायित्व को पूरा करने के लिए सरकार को पदोन्नति में भी अन्य पिछड़े वर्गों के सदस्यों को आरक्षण देने पर विचार करना चाहिए और इस प्रस्ताव को अमल में लाने के लिए संविधान संशोधन किया जाना चाहिए।” इसके अलावा, सरकारी क्षेत्र में नौकरियों की विरल संभावना को देखते हुए निजी क्षेत्र में भी आरक्षण के प्रावधान को लागू किए जाने के संबंध में विभिन्न मंचों पर विचार उठाए जा रहे हैं। इसके लिए दलित वर्ग और पिछड़ा वर्ग को संगठित और समन्वित संघर्ष करना होगा। यह लंबी लड़ाई है और हो सकता है कि इसके सफल होने के लिए कई दशकों तक इंतजार करना पड़े।
10 comments:
Aap konse duniya mein ho??? Ye aarakshan se kuch nahi hoga... Jo log mehnat se padhte hai oon logon par tau yeh sarasar julm hai... Mera ek dost jisne din raat ek kar 87% paaya aur doosra dost jo OBC tha wo aisho aaram se reh kar itni mehnat na kar oose 55% mila... Phir jab Admission ka daur shuru hua tau mera dost jise 87% mile they... oose admission nahi mili... Aur je janab bina kuch kiye Fr.Agnels mein Computer engineering ke admission mein mil gaya!!! Baat yaha khatam nahi hui... Wohi dost jise 87% mila tha... oose jabardasti Bsc ke liye enroll hona pada... Aur doosre bhai sahab se BE ka pehla saal bhi complete nahi ho paya aur anth mein oosne B.E discontinue kar diya... Iska matlab ek seat jo kisi ke jindagi banae ke kaam aati hai wohi seat kisi ke zindagi barbaad bhi kar sakti hai... Aur kon kehta hai ki saare OBC/SC/ST garib hai??? Mere hisaab se oonse jyaada garib tau General category waale hai... Abhi ye hee dono dost... jise 87% mila tha... oos bechaare ke ghar par bahut hee samasyaein thi... Aur ye doosre janab... jo OBC hai ooske pitaji MNC mein General Manager hai aur mataji SBI bank ki Cashier hai...
Reservations agr karna hee hai tau caste nahi balki family ki financial situation ke hisab se karo... Ooske educational qualifications se karo...
IIT aur IIM mein abhi bhi aise professors hai jo reservations ke base par select hue hai... saari jindagi reservations par aish kar rahe hai... Lekin students ko padhane ke mamle mein ekdum peeche hai... Kya INDIA progress kar paayegi??? Kya koi country INDIA ko reservations de kar koi cheez dega??? Kya kaabil loag sirf is mitti ki dhool ban kar mar jayenge???
Destroy reservations... Save our Nation...
सबसे पहले मै लेख मे उल्लेखीत कुछ भ्रांतिजनक तथ्यो की तरफ ध्यान दिलाना चाहुंगा।
"वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच आजीवन यही सिद्ध करने के लिए संघर्ष चलता रहा कि ब्राह्मण और क्षत्रिय में से श्रेष्ठ कौन है।"
वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच मे टकराव ब्राम्हण और क्षत्रीय का नही, अहम और वर्चश्व का था। मत भूलिये इस टकराव का प्रारंभ "कामधेनु" से हुवा था। विश्वामित्र उसे जनकल्याण के लिये उपयोग करना चाहते थे, लेकिन वशिष्ठ का स्वार्थ आडे आ रहा था
"परशुराम ने तो धरती को क्षत्रिय-विहीन कर देने की शपथ ले रखी थी और हजारों क्षत्रियों को अपने फरसे से मौत के घाट उतार दिया था। "
यह उनका निजी प्रतिशोध था। उन्हे क्षत्रियो से चिढ अपने पिता की हत्या से हुयी थी। कहा तो यह भी जाता है कि उन्होने २१ बार पृथ्वी को क्षत्रियो से विहीन किया, तब बाद मे क्षत्रीय कहां से आ गये ? राम भी क्षत्रिय थे, जिन्हे परशुराम ने शिक्षा और पाशुपत अस्त्र दिया था । कर्ण को उन्होने झुठ बोलने का दण्ड दिया था।
एकलव्य से अंगुठा मांगना, द्रोणाचार्य का अपने शिष्य के प्रति अंधा प्रेम है। नाकि उसकी जाति । द्रोणाचार्य ने यही भेदभाव कर्ण से भी किया। कर्ण की जाति का बवाल उस वक्त के समाज मे होता तो दुर्योधन उसे राजा नही बनाता। दुर्योधन स्वार्थी ही सही लेकिन सामाजिक मान्यताओ को मानने वाला था ।
शंबूक प्रकरण यह एक बाद मे जोडा गया क्षेपक है। वाल्मिकी रामायण(एक पिछडी जाति के लेखक) ने इसका कोई उल्लेख नही किया है, ना ही एक ब्राम्हण लेखक तुलसीदास ने । शबरी और निषाद राज को ना भुलें।
अब मै आता हूं आरक्षण पर
जातिगत आरक्षण की बुनियाद ही गलत है। यह आर्थीक आधार पर होना चाहिये।
आरक्षण से भारत को लाभ क्या हुआ ? जो आरक्षण व्यवस्था ५० सालो मे कुछ नही कर पायी, वो आगे क्या कर पायेगी ?
एक पिढी (बाप) को आरक्षण मिल जाने के बाद उसकी दूसरी पिढी(बेटे) को आरक्षण देने की क्या तुक है ? माना कि आपको आरक्षण चाहिये कि आपको आगे बढने का एक मौका मिले, अब आपको पदोन्न्ती मे आरक्षण क्यों चाहिये ?
सरकारी क्षेत्रो का सत्यानाश करने के बाद अब आप निजी क्षेत्रो मे क्यो जातिगत वैमन्शय फैलाना चाहते है ?
आजादी के बाद लक्षय यह होना चाहिये था कि जातिप्रथा का उन्मूलन हो, लेकिन आरक्षण ने इसे हमेशा के बना दिया । आज कथीत उंची जाति के लोग दलितो से चिढते है, नफरत करते है क्योंकि वे आरक्षण के नाम पर प्रतिभा ना होते हुये भी उनकी योग्यता को नीचा दिखा कर आगे बढ जाते है।
क्या आप आरक्षण व्यवस्था के तहत बने डाक्टर से अपना ईलाज करवाना पसंद करेंगे जिहोने १२वी मे ३५% अंक प्राप्त किये थे ? जो डाक्टर इसलिये बन गया क्योंकि वह एक जाति विशेष से है ।
उसका क्या जो ९०% अंक प्राप्त करने के बाद भी बिए या बी एस सी करने पर मजबूर हो गया क्योंकि वह उंची जाती से है ?
आपने विषय को बहुत ही तर्कपूर्ण ढंग से रखा है | जो लोग आज प्रतिभा की बात कर रहे हैं , उनकी प्रतिभा गत एक हजार वर्षों तक क्यों सो रही थी ? क्यों छोटे से यूरोप में हजारों वैज्ञानिक, इंजीनियर, गणितज्ञ, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, स्टेट्समैन, कूटनीतिज्ञ, कानूनविद, भाषाविद, और महानायक पैदा हुए ; जबकि भारत में इनका सर्वथा अकाल बना रहा ?
ये महानुभाव लोग भी अपने पुरखों की तरह मानकर चल रहे हैं कि प्रतिभा ऊँची जाति के साधन-सत्ता संपन्न लोगों की बपौती होती है जो केवल उन्हें ही जन्मजात मिलती है।
जी हां सही कहा आपने प्रतिभा ऊँची जाति की बपौती नही हैं, इसका मतलब यह भी नही है कि आप योग्यता ना रखते हुये अपनी जाति विशेष के कारण योग्य लोगो को टंगडी मारे ।
सृजन शिल्पी,
आप शायद अभी भी पुरातन काम में ही जी रहे हैं।बेअदबी के लिये माफ़ी चाहूँगा, लेकिन आपसे निवेदन करूंगा कि वक्त की सच्चाई को स्वीकार करिए।यदि आरक्षण पचास साल मे कुछ नही कर सका तो आगे क्या गारंटी है।
आपने तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है,घटनाओं को अन्य परिवेश मे जोड़कर दिखाया है, ये खेल घृणित खेल तो राजनेता करते है, आप कहाँ से पड़ गये इसमे? अभी भी समय है, पिछड़ा समाज जागे, कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ चले, कब तक नेताओं की फ़ेकी हुई आरक्षण की खैरात पर चलते रहेंगे।बाकी विचार मेरी पोस्ट पर देखिये
वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच आजीवन यही सिद्ध करने के लिए संघर्ष चलता रहा कि ब्राह्मण और क्षत्रिय में से श्रेष्ठ कौन है।
वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच का विवाद नंदनी को लेकर था न कि जातीय श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए। नंदनी वशिष्ठ के पास थी और विश्वामित्र उसे पाना चाहते थे जिस कारण उन्होने अपना राज-पाट त्याग संन्यास ले तप की राह पकड़ी थी।
परशुराम ने तो धरती को क्षत्रिय-विहीन कर देने की शपथ ले रखी थी और हजारों क्षत्रियों को अपने फरसे से मौत के घाट उतार दिया था।
परशुराम अन्यायी और अत्याचारी क्षत्रियों के खिलाफ़ थे जो अपना कर्तव्य भूल दूसरों को सताते थे। इस लिए उन्होंने 21 बार पृथ्वी से लगभग सभी क्षत्रियों का नाश किया था, पर उन्होंने जातीय भेदभाव ग्रसित हो यह सब नहीं किया था, उन्हें क्षत्रियों से कोई शत्रुता नहीं थी। और गंगापुत्र देवव्रत उनके सबसे प्रिय और सर्वश्रेष्ठ शिष्य थे जो कि क्षत्रिय थे और उनको देख ही परशुराम ज़ी ने कहा था कि संसार में किसी गुरू को उनके जैसा शिष्य पुनः कभी नहीं प्राप्त होगा। कौशल्या नंदन श्रीराम तथा देवकी नंदन कृष्ण भी उन्हें अति प्रिय थे और वे दोनों भी क्षत्रिय थे। गंगापुत्र देवव्रत के बाद कर्ण ही उनका सबसे प्रिय शिष्य था, बेशक उन्होंने कर्ण को शाप दिया था, और कर्ण भी वास्तव में क्षत्रिय था।
परशुराम को जब अपने प्रतिभाशाली और गुरुभक्त शिष्य कर्ण के बारे में यह ज्ञात हुआ कि वह ब्राह्मण नहीं, बल्कि एक क्षत्रिय है तो उसे श्राप दे दिया कि जब उसे धनुर्विद्या का उपयोग करने की सर्वाधिक जरूरत होगी तब वह सारी विद्या भूल जाएगा।
महाभारत फ़िर से पढ़ो भाई, परशुराम जी ने कर्ण को शाप इसलिए न दिया था कि वह ब्राह्मण न हो क्षत्रिय था, यदि ऐसा होता तो फ़िर वे गंगापुत्र देवव्रत को अपना शिष्य कभी न बनाते जो कि उनके सर्वश्रेष्ठ शिष्य थे। शाप तो उन्होंने इसलिए दिया था कि कर्ण ने उनसे झूठ बोला था।
अत्यंत प्रतिभाशाली होने के बावजूद एकलव्य को द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या की शिक्षा देने से इसलिए इनकार कर दिया क्योंकि वह भील जाति का था और जब उसने स्वयं अपनी लगन और मेहनत से वह विद्या हासिल कर ली तब द्रोण ने छल से दक्षिणा के रूप में उसका दाहिना अंगूठा मांग लिया ताकि वह अपनी विद्या का उपयोग नहीं कर सके।
एकलव्य का अंगूठा उन्होंने इसलिए दक्षिणा में माँगा था क्योंकि उन्हें उसके रूप में हस्तिनापुर के लिए खतरा नज़र आ रहा था क्योंकि एकलव्य मगध के सेनापति का पुत्र था और मगध शासक जरासंध हस्तिनापुर से बैर रखता था। दूसरी बात यह भी थी कि एकलव्य ने शिक्षा गुरू आज्ञा के बिना चोरी छुपे पाई थी।
भाई, कम से कम उदाहरण तो सही दिया करो!! ;)
यह ठीक है कि पिछड़ी जातियों का विकास होना चाहिए, उनको अपने को साबित करने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए, पर यह अवसर किस तरह प्रदान किए जाने चाहिए? फ़ोकट की नौकरियाँ बाँट कर और दूसरे लोगों के अधिकार छीन कर? यदि पिछड़े वर्गों का उत्थान करना है तो उन्हें बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए जो कि उनकी आर्थिक पहुँच के भीतर नहीं होती, ताकि वे लोग अपनी प्रतिभा को विकसित कर उसके बल बूते पर स्कूल कालेजों में प्रवेश पा सकें और उसके बाद नौकरी हासिल कर सकें। यदि किसी को बना बनाया खाना पकड़ा दिया जाएगा तो वो क्योंकर खाना बनाना सीखेगा?
क्या तथाकथित ऊँची जाति के लोगों को पिछड़ी जाति के लोगों की तरह बिना किसी मेहनत के विश्वविद्यालयों में प्रवेश मिलता है? क्या उन्हें काबिलियत न होने पर भी उच्च पदों पर नौकरी मिलती है? तो कैसे कह सकते हो कि पिछड़ी जाति के लोगों का शोषण हो रहा है जबकि उन्हें तो पकी-पकाई खिचड़ी मिलती है!!
आज के समय में यदि सरकारी और निजी क्षेत्र में पिछड़ी जाति के लोगों की प्रतिशत को देखोगे तो पाओगे कि उनकी अधिक प्रतिशत सरकारी नौकरियों में है। और तरक्की पर कौन सा क्षेत्र है? मुझे नहीं लगता कि मुझे कुछ कहने की आवश्यकता है। मैं पिछड़ी जाति के लोगों पर कटाक्ष नहीं कर रहा हूँ, वरन् नाकाबिल लोगों पर कटाक्ष कर रहा हूँ और वे किसी एक जाति के नहीं होते। इस तर्क से मैं सहमत नहीं कि आरक्षण के तहत नौकरी पिछड़ी जाति के व्यक्ति को ही देनी है, चाहे वह काबिल हो या न हो, क्योंकि इसी सोच के कारण .....
निजी क्षेत्र में भी पिछड़ी जाति के लोग ऊँचे पदों पर कार्यरत हैं, पर वे वहाँ अपनी जाति की वजह से नहीं अपितु अपनी योग्यता के बल पर विराजमान हैं और यही सही मायने में उनका विकास है। एक गंवार को जाति आदि के बूते पर नौकरी आदि देने का अर्थ है अन्य लोगों को भी उसकी राह पर चलने का उदाहरण प्रस्तुत करना। क्या यही आप चाहते हैं?
आशीष भाई, आप ठीक कहते हैं | उच्च वर्ग के लोगों में एक "विशेष-योग्यता" होती है - भ्रष्टाचार, पक्षपात और भाई-भतीजा-वाद करने की | इसी विशेष योग्यता के बल पर वे सब जगह "छाये" हुए हैं | पर अब भारत की बहुसंख्यक जनता को उनकी ये "विशेष योग्यता" समझ में आ गयी है | तभी तो वे खुद अपना रास्ता बनाने लगे हैं |
तेज प्रताप,
जाहिर है ये आपका असली नाम नही है, तभी तो आप अपने ब्लॉग/पता बताने की हिम्मत नही जुटा पाए।
रही बात विशेष योग्यता की, तो भैया, आप कोई आसमान से तो उतरे नही हो। उतरे हो क्या? ये खामियां/बुराईयां उच्च और पिछले वर्ग दोनों मे समान रुप से फ़ैली हुई हैं। पथ मे मत भटको,बहस करनी है तो आरक्षण के मुद्दे पर करो। इधर उधर की बात मत करो।
आरक्षण पर बहस में शामिल होने के लिए आप सभी साथियों को धन्यवाद। तेज प्रताप भाई, आप जीतू जी की चुनौती स्वीकार कर ही डालिए। एक साथी ने अज्ञात रहकर अपनी टिप्पणी दी है। क्यों भई, एक संवैधानिक मुद्दे पर बहस में प्रकट भाव से शामिल होने में संकोच तो नहीं करनी चाहिए! समाचार चैनलों और समाचार पत्रों में तो ऊँची जातियों का वर्चस्व है, वे आपको अपनी बात अपने माध्यम पर रखने नहीं देंगे। कम से कम ब्लॉग जैसे स्वतंत्र माध्यम पर खुलकर अपनी बात कहने से पीछे न रहें। आप सभी अपनी प्रतिक्रियाओं का एक समेकित उत्तर शीघ्र ही मेरी अगली प्रविष्टि में प्राप्त करेंगे।
dekh bhai aarakshan sahi nahi hai bus
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