Tuesday, February 21, 2006

कब मिलेगा आवास का मौलिक अधिकार

“सबै भूमि गोपाल की”-- क्या यह उक्ति आज के संदर्भ में भी सार्थक है? पूरी धरती की बात फिलहाल हम नहीं कर सकते। क्या भारत के समस्त भू-क्षेत्र पर सभी नागरिकों का समान अधिकार है? क्या भारत के सभी नागरिकों को आवश्यकता के अनुरूप आवास की समुचित व्यवस्था का मौलिक अधिकार प्राप्त है? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (ङ) के तहत सभी नागरिकों को “भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का” मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है। इसी तरह, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण संबंधी मौलिक अधिकार की व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय ने इसके दायरे में गरिमापूर्ण जीवन, निजी एकान्त जीवन, स्वच्छ वातावरण और जीविका के अधिकार को भी शामिल किया है। कहना न होगा कि इन सब बातों का आवास की समुचित व्यवस्था के साथ गहराई से संबंध है। अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार करते हुए सरकार ने संसद द्वारा अनुमोदित राष्ट्रीय आवास नीति, 1998 के अनुसार देश में प्रति वर्ष 20 लाख नई आवासीय इकाइयों के निर्माण को नेशनल एजेंडा फॉर गवर्नेंस में प्राथमिक लक्ष्य के तौर पर शामिल किया है। लेकिन वास्तविकता यह है कि आवास की बुनियादी आवश्यकता को पूरा करने के मामले में अपनी जिम्मेदारी निभा पाने में वह अभी तक विफल ही रही है और उसने आवास के क्षेत्र को पूरी तरह बाजार के हाथों में छोड़ दिया है। यहाँ तक कि सरकार खुद भी इस मामले में बाजार से नियंत्रित हो रही है और मुनाफाखोरी पर उतर आई है। जो जमीन सरकार के नियंत्रण में है उसे वह नीलामी के जरिए बाजार भाव पर बेचने लगी है और जो जमीन लोगों के निजी स्वामित्व में है उसके बाजार भाव को नियंत्रित करने के मामले में अपनी भूमिका से वह पीछे हट रही है। यही कारण है कि भारत में, खासकर महानगरों और शहरी क्षेत्र में रीयल इस्टेट का पूरा कारोबार भ्रष्टाचार की भयंकर चपेट में है। यह सारा कारोबार भू-माफिया, बिल्डर, प्रोपर्टी डीलर, नगर निगम, भूमि विकास प्राधिकरण, सोसायटी रजिस्ट्रार, काला धन रखने वाले व्यवसायी, अपराधी, नेता और नौकरशाह तथा पुलिस और प्रशासन में शामिल लोग आपसी साँठ-गाँठ करके चला रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के विभिन्न भूमि विकास प्राधिकरणों द्वारा प्लॉट या फ्लैट आवंटन के ड्रॉ का शायद ही कोई ऐसा मामला रहा हो, जिसमें किसी न किसी स्तर पर भ्रष्टाचार न हुआ हो। सोसायटी रजिस्ट्रार और नगर निगम के कार्यालय भी भ्रष्टाचार के बदनाम अड्डे बन चुके हैं। रीयल इस्टेट की कीमतें बिल्कुल अवास्तविक हो चुकी हैं और अपना खुद का घर देश के आम मध्य वर्ग के लिए सपना बन कर रह गया है। हालत यह है कि दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों में अपनी वैध कमाई से औसत आमदनी वाला कोई व्यक्ति अपना घर नहीं खरीद सकता और आवास ऋण लेकर कोई अपना घर खरीदने का दुस्साहस करे तो वह जीवन भर ऋण के दुश्चक्र में फँस जाने के लिए अभिशप्त हो जाएगा। प्रोपर्टी का बाजार मूल्य पिछले पाँच वर्षों के दौरान उसके वास्तविक पंजीकृत मूल्य से तीन-चार गुना अधिक हो गया है, जबकि इस दौरान लोगों की आमदनी में नाममात्र की बढ़ोतरी ही हो पाई है। मध्य वर्ग के किसी औसत व्यक्ति की आमदनी एक वर्ष में कुछेक सौ रुपये ही बढ़ पाती है, जबकि प्रोपर्टी की कीमतें हर वर्ष कई लाख रुपये बढ़ रही हैं। हक़ीक़त यह है कि नागरिकों की वैध आमदनी अर्थात् उनकी वास्तविक क्रय क्षमता और प्रोपर्टी के बाजार-मूल्य के बीच कोई संगति ही नहीं रह गई है। हर कोई जानता है कि किसी प्रोपर्टी के पंजीकृत मूल्य से अधिक भुगतान की गई शेष सारी राशि काले धन के खाते में जाती है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब देश के करोड़ों लोग आवास की समस्या से जूझ रहे हों तो रीयल इस्टेट के बाजार पर काला धन रखने वाले मुट्ठी भर लोगों को कब्जा करके अंधाधुंध मुनाफा बटोरने और आम लोगों के हक़ पर कब्जा करने की छूट कैसे दी जा रही है ? हैरानी की बात यह है कि प्याज और रसोई गैस जैसी छोटी-छोटी चीजों की कीमतें बढ़ने पर तो हंगामा खड़ा हो जाता है और सरकारें डगमगाने लगती हैं, लेकिन रीयल इस्टेट के बाजार में आए इस अनियंत्रित उछाल को लेकर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं हो रही है। वह प्रोपर्टी डीलर जिसके पास अपने पेशे का कोई लाइसेंस नहीं होता, जो किसी भी राजकीय एजेंसी में पंजीकृत नहीं है, जो सरकार को कोई टैक्स नहीं चुकाता, जो प्रोपर्टी को खरीदने-बेचने में महज एक मध्यस्थ की भूमिका निभाता है, वह बाजार में प्रोपर्टी की कीमतें अपनी मनमर्जी से तय करता है। हालत यह हो गई है कि रीयल इस्टेट का बाजार शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक से भी अधिक संवेदनशील बन गया है और वह बहुत-सी ऐसी ख़बरों से प्रभावित होने लगा है, जिनसे प्रोपर्टी की कीमतों का कोई सीधा संबंध नहीं है। यदि दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मेट्रो का जाल बिछाया जा रहा है या पाँच वर्ष के बाद दिल्ली में एशियाई खेल आयोजित होने वाले हैं तो इससे किसी आवासीय प्रोपर्टी की कीमत क्यों बढ़नी चाहिए? यदि मुम्बई में किसी बड़े औद्योगिक घराने ने नीलामी में काफी ऊँची बोली लगाकर कोई प्रोपर्टी खरीद ली तो इससे पूरे मुम्बई या उसके आसपास के इलाकों में प्रोपर्टी की कीमतें क्यों बढ़नी चाहिए ? दिल्ली उच्च न्यायालय ने यदि दिल्ली में अवैध निर्माणों के विरुद्ध तोड़-फोड़ की कार्रवाई शुरू करने का आदेश दिया तो इससे वैध निर्माण वाली प्रोपर्टी की कीमतें क्यों बढ़ जानी चाहिए? मगर ऐसा हो रहा है और पिछले एक महीने के भीतर दिल्ली की नियमित कॉलोनियों के वैध निर्माण वाले मकानों की कीमतें 30 फीसदी तक बढ़ गई हैं। हैरानी की बात यह है कि ऐसी हर बात पर प्रोपर्टी की कीमतें बढ़ जाना एक दस्तूर-सा बन गया है और उनके औचित्य पर प्रश्न तक उठाने वाला कोई नहीं है। सवाल यह है कि आवास के क्षेत्र में बाजार के नियमों यानी मांग और पूर्ति के संबंध के आधार पर कीमतें निर्धारित होना कितना उचित है ? जिन लोगों को रहने के लिए आवास की वास्तव में जरूरत है उन्हें आवास उपलब्ध कराने की बजाय सरकार ऐसे लोगों को क्यों प्रोत्साहन दे रही है जो अपने काले धन का निवेश रीयल इस्टेट में करके बिना किसी मेहनत के जल्दी कई गुना मुनाफा कमाने के खेल में शामिल हैं। हालत यह है कि जहाँ ईमानदारी और मेहनत से कमाई करने वाले करोड़ों लोगों के पास रहने को अपना छोटा-सा घर तक मयस्सर नहीं है, वहीं अवैध तरीकों से कमाई करने वाले कुछ लोग कई-कई मकानों और जमीन के प्लॉटों पर क़ाबिज़ हो चुके हैं और अंधाधुंध मुनाफ़े के इस बाजार पर छाए हुए हैं। इस तरह देश में आर्थिक विषमता की खाई बढ़ती जा रही है और देश के किसी भी भाग में निवास कर सकने, आजीविका प्राप्त करने, गरिमापूर्ण जिंदगी गुजर-बसर करने, निजता की सुरक्षा करने, स्वच्छ वातावरण में रहने संबंधी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का घोर उल्लंघन हो रहा है। जो लोग अभी तक अपना मकान नहीं खरीद पाए हैं और जिनके पास औसत वैध आमदनी के अलावा काले धन का कोई अन्य स्रोत नहीं है, रीयल इस्टेट के बाजार में उनकी गाड़ी अब छूट चुकी है। भारतीय संविधान में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता का जो स्पष्ट उल्लेख किया गया है वह कम से कम आवास के क्षेत्र में तो कतई लागू नहीं होता। जिसने अपने कैरियर की शुरुआत अपेक्षाकृत देर से की और जो रीयल प्रोपर्टी बनाने के मामले में पहल किसी दूसरे व्यक्ति की तुलना में देर से कर पाया, वह हमेशा के लिए दूसरों से पीछे रह जाएगा। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में वर्ष 2000 में जिस एम.आई.जी. फ्लैट की कीमत 7 लाख रुपये थी, पिछले पाँच वर्षों के दौरान उसकी कीमत बढ़कर अब 16 से 22 लाख रुपये तक हो चुकी है। यदि वर्ष 2000 में किसी व्यक्ति ने 5 लाख रुपये ऋण लेकर और 2 लाख रुपया अपनी बचत में से लगाकर अपना घर खरीद लिया तो 5000 रुपये की मासिक किश्त 20 वर्ष तक चुकाने अर्थात् अपने ही मकान का किराया भरने के बाद वह उस फ्लैट का स्वामी बन सकता है और यह उसके लिए बिल्कुल सहज भी रहेगा, क्योंकि एक तो उसकी मासिक किश्त उसके द्वारा पहले चुकाए जा रहे मकान किराये के संगत है और दूसरी बात यह कि उसे ब्याज की निम्न दरों का लाभ भी मिल गया। लेकिन यदि किसी व्यक्ति ने उस समय मकान नहीं लिया और इस दौरान उसकी वार्षिक आय 1.50 लाख रुपये से बढ़कर 2 लाख रुपये हो चुकी हो तब भी उसे उसी फ्लैट को खरीदने के लिए अब कम से कम 10 लाख रुपये अधिक चुकाने होंगे। मान लीजिए इस समय उसके पास अपनी बचत के 5-6 लाख रुपये हों और शेष राशि वह बैंक से ऋण लेकर वही फ्लैट खरीदना चाहे तो उसे 20 वर्ष तक 12000 रुपये मासिक किश्त चुकाने होंगे, जो कि उसके द्वारा चुकाए जा रहे मकान के किराये के दोगुने से भी अधिक होगा। उसे आवास ऋण की बढ़ी हुई ब्याज दरों का बोझ भी वहन करना पड़ेगा। यदि उसके पास आय का कोई अतिरिक्त साधन नहीं हो तो अपना मकान खरीदने का उसका यह दुस्साहस उसके परिवार के जीवन-स्तर पर गंभीर प्रतिकूल असर डालेगा। यदि वह अपने जीवन-स्तर को बनाए रखने की स्वाभाविक चेष्टा करे तो उसे या तो अपने मकान के सपने देखना छोड़ देना पड़ेगा या फिर अवैध स्रोतों से आय का जुगाड़ करना पड़ेगा, क्योंकि किसी व्यक्ति के जीवन भर की कमाई का सबसे बड़ा निवेश मकान में ही होता है और यह निवेश उसकी तमाम अन्य आवश्यकताओं को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। नागरिकों के लिए आवास का समुचित प्रबंध करने का दायित्व जिन राजनेताओं और नौकरशाहों के हाथों में है उन्हें अति विशिष्ट इलाकों में लगभग मुफ्त की आवास सुविधा मिली हुई है, जिनका खर्च वास्तव में आम जनता को तरह-तरह के कर चुका करके वहन करना पड़ता है। लेकिन आम जनता जब प्रोपर्टी डीलर, बिल्डर, भू-माफिया, भ्रष्ट अधिकारी और राजनेता के धोखे का शिकार बनने के बावजूद किसी तरह अपने घर का प्रबंध करने की कोशिश करती है तो उनके आशियाने पर बुलडोजर चलवाने से पहले अदालतें भी उनके हितों की सुरक्षा करना जरूरी नहीं समझतीं। क्या भारतीय न्याय-व्यवस्था और राजव्यवस्था नागरिकों के आवास संबंधी अधिकारों की सुरक्षा कर सकने में सक्षम है? समय आ गया है जब संसद को मौलिक अधिकारों की सूची में आवास के अधिकार को जोड़ने के लिए संविधान संशोधन के जरिए स्पष्ट संवैधानिक उपबंध करना चाहिए। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर परिवार को आवश्यकता के अनुरूप एक आवास अवश्य उपलब्ध हो और किसी भी व्यक्ति या परिवार के पास एक से अधिक आवास का कब्जा नहीं हो। जिस किसी के पास उसके रहने की आवश्यकता से अधिक मकान या जमीन हो, उसे सरकार द्वारा मुआवजा देते हुए जब्त कर लिया जाना चाहिए। रीयल इस्टेट के कारोबार के विनियमन के लिए एक सशक्त विनियामक आयोग का गठन किया जाना चाहिए, जो इस कारोबार से जुड़े सभी पक्षों की गतिविधियों पर निगरानी रखे और नागरिकों के हितों की सुरक्षा करे। रीयल इस्टेट के कारोबार में से भ्रष्टाचार का समूल उन्मूलन करने के लिए विशेष अभियान चलाया जाना चाहिए। प्रोपर्टी डीलरों का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए और उनके द्वारा की गई हर खरीद-बिक्री तथा उनकी आय एवं संपत्ति पर राजस्व प्राधिकारियों की कड़ी निगरानी होनी चाहिए। लेकिन सबसे अधिक आवश्यक यह है कि हर प्रोपर्टी का अधिकतम मूल्य निर्धारित किया जाना चाहिए और उसकी जानकारी सर्वसुलभ कराई जानी चाहिए। इस मामले में न्यायालय से भी विशेष मदद मिल सकने की आशा की जा सकती है। इसके लिए जनहित याचिका के माध्यम से नागरिकों के इन मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय से गुहार लगाने की पहल करनी होगी।
राष्ट्रीय सहारा ने इस आलेख को संपादित रूप में 24 फरवरी, 2006 को अपने "प्रॉपर्टी" पृष्ठ पर प्रकाशित किया है।

3 comments:

अनुनाद सिंह said...

आप बाजार की शक्ति को "राक्षसी-शक्ति" की भाँति समझकर उसे अनादृत क्यों कर रहे हैं ? क्या वह "दैवी-शक्ति" की तरह पवित्र माने जाने की हकदार सिद्ध नही हो चुकी है ?

अनुनाद

Srijan Shilpi said...

अनुनाद जी, जैसा कि हमारे प्रभाष जोशी कहते हैं कि इस बाजार संस्कृति के दर्शन में पूँजी ही ब्रह्म है और मुनाफा, मोक्ष। यदि मुनाफे रूपी मोक्ष और पूँजी रूपी ब्रह्म में किसी की आस्था है तो उसके लिए बाजार निश्चित ही दैवी शक्ति की तरह पवित्र है। जब कभी कोई सत्य और न्याय की बात करता है तो ऐसी "दैवी शक्तियाँ" आहत तो जरूर होती हैं।

Unknown said...
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